गुरुवार, 31 मई 2012

पंखा लगे नगीना

टप- टप टपके पसीना 
गर्मी का महीना
पंखा लागे नगीना
गर्मी का महीना.
बिजली कभी रहे न
गर्मी का महीना.
झुलसा  घर और अंगना

गर्मी का महीना.
बादल कहीं दिखे न
गर्मी का महीना.
टप-टप टपके पसीना
पंखा लागे नगीना
गर्मी का महीना.

रविवार, 27 मई 2012

नारी तुम अबला नहीं सबला हो.......


नारी की बेचारगी और बेबसी उसकी पर आश्रिता  होने से जुडी है.पहले जब स्त्री का  समाज के सबसे निचली तबके के समान स्थिति थी,वह सिर्फ एक भोग्या और बच्चे जन्म देने वाली थी.इसी से तब के लिखे वेद-पुराण और मन्त्र इत्यादि में इसी रूप में उसकी व्याख्या है.ये पुरानी बात है.....इस को ले कर आज दुखी न हों .आज समाज के सोच में बदलाव आ गया/रहा है.शिक्षा ने जागरूकता की मशाल जला दी है.आज नारी सिर्फ किसी बेटी/पत्नी/माँ  नहीं है,वो एक डॉक्टर/इंजिनियर/अध्यापिका/राष्ट्रपति/...........और भी न जाने क्या क्या है.अब भेद नारी या पुरुष की नही शिक्षित और अ शिक्षित की है.यदि इक्छाशक्ति हो आज मौके बहुत हैं,खुद को साबित करने को,अपनी बेटी बहन को पहचान दिलाने के लिए.अपने आस-पास बहुतेरे उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ एक स्त्री अपनी पढाई ,काम-काज,गुणों इत्यादि से पहचानी जाती है.
मेरी भी दो बेटियां हैं,मैं उन्हें अपना  "धन "मानती हूँ न की पराया.

शनिवार, 26 मई 2012

शोषण


          शोषण 
 कुछ दिनों पहले क़ि बात है, मेरी महरी सरस्वती  बहुत खुश थी क्यूँ की उसके साथ उसकी बेटी,मनीषा  आई हुई थी काम करने.लगभग ६ महीने पहले ही उसने किसी मनपसन्द लड़के से भाग कर शादी की थी.उसके चले जाने से मेरी महरी के काम करने के घर आधे हो गये थे,जाहिर सी बात थी महरी बिलकुल खुश नही थी अपनी बेटी की शादी से.सरस्वती बोल रही थी बड़ा ही बुरा ससुराल है मनीषा का,चार चार ननदें है पर सारा काम इसे ही करना पड़ता है.....बहुत शोषण करतीं हैं मेरी बच्ची का.अब नही भेजूंगी इसे ससुराल.
   अब सुबह शाम मनीषा काम पर पहले की तरह आने लगी.१-२ दिनों में ही सरस्वती ने ३ घर और पकड़ लिए थे,अब बेटी जो आ गयी थी.मैं सोच में पड़ गयी क़ि कौन शोषण कर रहा है......

शनिवार, 19 मई 2012

नजरिया --

                              नजरिया --

      जिस तरफ तुम हो वहाँ से वही दीखता है,जिस तरफ मैं  हूँ वहाँ से यही दीखता है.
         .... गलत तुम भी नही , गलत मैं भी नहीं.

   बात नजरिये की है.एक ही बात का तुम कुछ और मतलब निकलते हो,मैं कुछ और.
         .... गलत तुम भी , नही गलत मैं भी नहीं.
    विचारों का न मिलना सबसे बड़ी विडम्बना है
     तुम कहते हो गिलास आधी खाली है,मैं कहती हूँ आधी तो भरी है.
      ....सही तुम भी हो,सही मैं भी हूँ.

      तुम जहाँ खड़े  हो उधर से विरानियाँ ही दिखती है,पर जहाँ मैं हूँ वहाँ से वहीँ मुझे रंगीनियाँ  भी  दिख रहीं है
   ..कैसे कहूँ  गलत कौन है.
     उसमे तुम्हे कमियाँ ही कमियां दिखती हैं पर मुझे तो कुछ सम्भावनाएं भी झाकती   दिख रहीं हैं
 .....  कैसे कहूँ कौन सही है

     तुम्हें वहाँ सिर्फ राख और मलबा ही नजर आ रहा है,
   पर मुझे शायद राख में दबी चिंगारी और मलबे से हिलती जिंदगियां भी महसूस हो रही हैं.
 ... . .बात नजरिये की है
 अपनी नकरात्मक चश्मे को बदल डालो.सकारात्मक शीशे में  कुछ और ही तुम को नजर आएगा.
  ......शायद अबकी बार  मैं ही सही हूँ.

.फल की परम्परा


.फल की परम्परा


सविता जी लगभग २०-२५ वर्षो में मेरे पडोस में रहतीं है.कुछ दिनों से उन्हें बहुत परेशान देख रही थी,मुझसे रहा नही जा रहा था.उनका  भाव-भंगिमा उनके दुखो को बयाँ कर रही थी.अभी ८ दिन पहले ही तो बेटे के पास से घूम कर आयीं थी.मैंने थोडा सा कुरेदा तो उनके आसूं निकल गये.क्या बताउं इतने शौक से बेटे की शादी की थी.मेरी सास ने जो मुझे नही किया था मैंने सब किया.मैंने अपने सारे जेवर बहू को पहना दिए थे,आप तो जानती ही हैं मेरी सास ने मुझे एक भी जेवर नही  नही दिया  था.सोचा था इतना  देना लेना करुँगी   तो बहू सर-आँखों पर रखगेगी..पर इज्जत देना तो दूर,वो तो मुझसे सीधी मुह बात भी नही करती है.मैंने सुना वो मेरे बेटे को बोल रही थी की मेरी सारी गर्मी की छुट्टियाँ आपकी मम्मी जी सेवा में बीत रही है.फिर मैं रुक कर क्या करती,अगली ट्रेन से लौट आई.बहुत ही बुरी बहू मिल गयी है,ठीक ही है भगवान ने उसे भी २ बेटे दिए हैं,एक दिन उसे जरूर फल मिलेगा.

      मुझे अचानक १५-२० साल पहले की याद हो आई,जब सविता जी की सास आयीं हुई थी और इन्होने उनका जीना दूभर  कर रखा था.उनकी गरीबी पर हँसती,गहना-जेवर ले कर ताने मारती.बेचारी विधवा सास,ताने बेइज्जती सहती रहती,पर इन्होने उन्हें वापस गाँव भेज कर ही दम लिया था.आज भी ८०-८५ साल की इनकी सास बड़ी मुश्किल से अपनी जीवन की गाडी गाँव में खीच रहीं  हैं. ये बड़ी हिकारत से उन्हें यहीं से लंबी उम्र के लिए उन्हें कोसती रहती है.

  आज इनकी बातो को सुन कर लगा ,समय का पहिया घूम चूका है, पता नही कौन फल भोग रहा है.....या भुगतेगा....

शुक्रवार, 18 मई 2012

हमारे आस-पास इतना कुछ घटित होता है,कुछ बातें रोजमर्रा की होती हैं जिनपर कोई ध्यान   नही जाता है.पर कभी कभी कुछ ऐसा होता जो मन को जकझोर देतीं हैं .दिल मजबूर कर देता है कलम उठाने को.