मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

लघु कथा - - 1 कृतघ्न,एहसास,सुनी -सुनाई ,बदला -चित्र कथा

एहसास

   
    शुक्ला जी अपने समय में बहुत चुस्त और फुर्तीले हुआ करते थे.किसी भी तरह का कोई अटका काम हो ,लटका काम हो.....वे बड़ी चतुराई से निकाल लिया करते थे.अपना काम तो बड़ी होशियारी से करते ही थे,बच्चो के बड़े होने पर उनकी गृहस्थी के उलझनों को भी सुलझाते रहते थे.ऐसे बहुतेरे मौके आते थे जब उनके बच्चो के काम अटक जाते थे कभी बैंक मे तो कभी पोस्ट ऑफिस मे.कभी किसी सरकारी दफ्तर मे तो कभी घर-जमीनी काम.सभी उलझनों को बड़े मनोयोग से सुलझाते.उनके बच्चे उनके कायल थे.धीरे धीरे उन्हे लगने लगा कि बहुत दिनो से किसी बच्चे का कोई मामला उन्हे अटका-लटका नहीं दिख रहा है,उत्सुकता वश वे खोद खोद उनसे पूछते रहते कि कोई काम तो नहीं...।
तभी बातचीत के दौरान पता चला बेटे कि किसी क्रेडिट कार्ड कंपनी से कुछ गलत बिलिंग का लफड़ा चल रहा है,उन्हे लगा अब तो मुझे बताएगा ही बेटा,मेरे बिना कैसे सुलझेगा ये मामला.कुछ दिन गुजर गए तो खुद बेटे से पूछा बताओ मामला क्या है....डीटेल दो...तुम से ये सब होने -जाने वाला नहीं,मुझे करने दो.बेटे ने कहा हो जाएगा पापा,होते रहता है ये सब.हूँ .....करो मालूम तो है नहीं कैसे करना है.....फिर मुझे मत कहना.बेचैनी बदती जा रही थी.....मेरे बिना...मेरे बिना.....घर के काम मेरे बिना ...कैसे हो सकता है...फिर एक दिन बेटे ने सूचना दी पापा क्रेडिट कार्ड वालों ने अपनी गलती मान ली,मामला सुलझ गया.शुक्ला जी पता नहीं खुश नहीं हो पाये,मेरे बिना ,ये बात चुभ रही थी.......।
सच मुच मैं बुड्डा हो गया...।
सच बुड्डे होने का एहसास मनोबल तोड़ देता है.






कृतघ्न


कृतघ्न
"माँ तुम इतनी देर कहाँ रह गयी थी ?देखो पापा इतनी देर से गों गों क्या कह रहें है,शायद उन्हें टॉयलेट जाना था और अब तो पायजामा भी गीली कर दी है।"
" मारे बदबू के नाक फटा जा रहा है और तुमने कौन वाली दवाई देने कहा था मैं भूल ही गया। जल्दी से रसोई में जाओ बेचारी रीमा अकेली परेशान हो रही है इतने लोगो के खाना बनाने में।"
माँ क्या बताती कि अत्यधिक थकान,मशक्कत और उम्र के तकाजा के कारण मंदिर में बेहोश हो गिर गयी थी ,वरना २०-२५ दिन पहले लकवा ग्रस्त पति को वह खुद अनजानों के बीच नहीं छोड़ती जिन्हे समझ न आ रहा हो कि बीमार पिता क्या बोल रहें हैं।
वह एकटक देखती रह गयी कि उसका बेटा यूं ही कैसे २९ वर्ष का हो गया।






सुनी -सुनाई 
आज मैं "दुल्हन "नामक एक श्रृंगार स्टोर में चूड़ी -बिंदी इत्यादि खरीदने गयी। सेल्स गर्ल दिखाने लगी ,वहीँ दुकान की मालकिन जो काउंटर बैठी किसी दूसरी महिला से ऊँचे स्वर में अपनी बहू की शिकायत कर रही थी- मैंने तो साफ कह रखा है कि मायके वालों से कोई सम्बन्ध न रखो ,जब तक तुम्हारे घरवाले तयशुदा रकम की अदायगी न कर दें। तब दूसरी ने कहा कि यदि दहेज़ केस में फंसा दिया तो ?तो दुकानवाली ने कहा कि मैंने घर के सारे चार्जिंग पॉइंट बिगाड़ दिए हैं ताकि वह मोबाइल चार्ज न कर सके और किसी से बाते नहीं कर सके। रोज दिन दुकान आते वक़्त उसे रसोई में ताले में बंद कर आती हूँ ,उसके बाप की सारी हेकड़ी निकाल दूंगी मुझसे मक्कारी करेगा। ..........
मुझसे अब और बर्दास्त नहीं हुआ मैं दुल्हन श्रृंगार स्टोर से बिना कुछ लिए निकल गयी। — feeling bad.






बदला -चित्र कथा
ये कहानी बहुत पुरानी है। ऐन फेरों के पहले शादी के मंडप से सैकड़ो लोगो के बीच से रणजीत ने पारिवारिक पुरानी रंजिश का बदला लिया था। दुल्हन बनी बानी को उठा कर उसे अपनी पुरानी हवेली के कमरे के पलंग पर पटकते हुए कहा कि वह जल्द ही अपनी जीत का जश्न मनाने का इंतेजाम कर आता है ,फिर सोचेंगे कि बानी के साथ क्या करना है। बन्दूक से गोली दागता वह ख़ुशी से झूम रहा था कि उसने अपने पुरखो के अपमान का बदला ले लिया .बानी पलंग पर बैठे अपने किस्मत को कोस रही थी कि क्या से क्या हो गया। तभी एक बूढ़ा सा व्यक्ति पलंग के पास आया ,बानी डर से सिमट गयी। उसने कहा,डरो मत मैं रणजीत का दादा हूँ ,मैं माफ़ी चाहता हूँ कि मेरे पोते ने ऐसा किया। तुम ये लिफाफा पकड़ो इनमे कुछ रुपयें हैं जो तुम्हारे काम आयेंगे और जल्दी से अपने घर लौट जाओ। मैं नहीं चाहता हूँ कि ये कहानी पीढ़ी दर पीढ़ी दुहराई जायी। मेरी बेटी तो हमेशा के लिए चली गयी पर मैं नहीं चाहूंगा हूँ कि दुश्मन को भी ऐसी पीड़ा से गुजरनी पड़े।

बदला  -चित्र कथा 
ये कहानी बहुत पुरानी है। ऐन फेरों के पहले शादी के मंडप से सैकड़ो लोगो के बीच से रणजीत ने  पारिवारिक  पुरानी रंजिश  का  बदला लिया था। दुल्हन बनी  बानी  को  उठा  कर उसे  अपनी पुरानी हवेली  के कमरे के  पलंग पर पटकते हुए  कहा कि  वह  जल्द  ही अपनी जीत का जश्न मनाने का इंतेजाम कर आता है ,फिर  सोचेंगे कि  बानी के साथ क्या करना  है। बन्दूक से गोली दागता वह ख़ुशी  से झूम  रहा था कि  उसने अपने पुरखो  के अपमान  का बदला  ले  लिया ,जब  उसके घर की कोई बेटी बानी के घर के किसी लड़के साथ गायब हो गयी थी। बानी पलंग पर बैठे अपने किस्मत को कोस रही थी कि क्या से क्या हो गया। तभी एक बूढ़ा सा व्यक्ति पलंग के पास आया ,बानी डर से सिमट गयी। उसने कहा,डरो मत मैं रणजीत का दादा हूँ ,मैं माफ़ी चाहता हूँ कि मेरे पोते ने ऐसा किया। तुम ये लिफाफा पकड़ो इनमे कुछ रुपयें हैं जो तुम्हारे काम आयेंगे और जल्दी से अपने घर लौट जाओ। मैं नहीं चाहता हूँ कि ये कहानी पीढ़ी दर पीढ़ी दुहराई जायी। मेरी बेटी तो हमेशा के लिए चली  गयी पर मैं नहीं  चाहूंगा हूँ कि दुश्मन को भी ऐसी  पीड़ा  से गुजरनी पड़े।








कोयला खदान 


छत्तीसगढ़ की धरती बड़ी ही समृद्ध है। एक तरफ तो घने जंगलों की सघनता तो दूसरी तरफ गर्भ में काला हीरा कोयले की प्रचुरता। पारो अपने पति और कुछ अन्य लोगो के साथ बांसवाड़ा ,राजस्थान से कोरबा  काम करने कुछ ३-४ साल पहले आयी थी। पहले वह भी काम करती थी पर एक बच्चा हो जाने के बाद वह मजदूरी छोड़ घर सँभालने लगी। अक्सर मन नहीं लगने पर वह बच्चे को गोदी में ले कर खदान में आ जाती और एक तरफ ढेरी पर बैठ काम करती औरतों से बतियाती। खदान में कोयले की निकासी के चलते काली धूल उड़ती रहती ,बड़े बड़े डोजर डम्फर चलते तो नीला आसमान काला हो जाता। धरती के अत्यधिक दोहन से पर्यावरण की सारी व्य़ाख्या यहाँ दम तोड़े रहती है। आज पारो पूरी सज धज के साथ आयी थी ,गले में सोने की पानी चढ़ी माला ,पैरो में पायल ,नयी लाल चूड़ियाँ ,गहरे बैगनी लहगा और होठों पर लाली भी थी। सोचा था पति काम कर ख़तम कर ले तो कोरबा सिनेमा देखने जाउंगी। कोई पेड़ -छावं तो था नहीं गमछी से ही छाया कर रही थी तभी खदान में दूर कहीं ब्लास्टिंग कर कोयला तोडा गया और धूल की आंधी ऐसी चली कि लगा पारो का काजल सर्वस्य फैल गया। उसने मोबाइल से अपने पति को रिंग किया , तभी उसने जो देखा वह खदान की आम घटना थी, उसका पति एक विशालकाय डम्फर के भीमकाय चक्कों तले पिस कर पापड़ हो चुका था। धूल इतनी घनेरी थी कि पास आ गयी डम्फर उसे दिखाई नहीं दिया और ब्लास्टिंग के शोर में सुनाई भी नहीं दिया। बस एक हाथ बाहर था और  मुठ्ठी में मोबाइल बजे जा रहा था 























कोयला खदान 

बेटी की विदाई- एक व्यंग्य

                           





लड़की की बस अभी विदाई  हुई ही थी,लड़की की माँ दहाड़े  मार,रो रो कर आसमान-पाताल एक करने लगी.वहाँ उपस्थित सभी की आखें नम होने लगी.रोते हुए वे उच्च स्वर मे क्रंदन करते हुए बेटी के जाने का गम का भी बखान कर रहीं थी.सुबह उठते अब मुझे और इनको चाय का प्याला कौन पकड़ाएगा ...... मेरी पूजा की थाली कौन सजायेगा,कौन अपने बाबू जी को कपड़े इस्तरी कर देगा......ऊं ऊँ.....कौन मेरी  नाश्ते की प्लेट सामने रखेगा....अब कैसे मेरी गृहस्थी  चलेगी रे !मुन्निया तेरे बिना????कौन छोटे भाई को स्कूल के लिए तैयार करेगा,अररे कौन खोलेगा रे मुन्निया दिन भर घर का दरवाजा.छाती पीटते हुए माँ बेटी के बियोग मे कह रहीं थी कैसे बनेगी अब रसोई ,कौन गमलों को पानी देगा,साफ सफाई घर कि कैसे होगी  ....... .हीरा सी बेटी मेरी चली गयी अब रात मे कौन हमारे पैर दबाएगा.....…

    स्वर शनै शनै बढ़ रहा था.......मैं सोचने को मजबूर हो गयी कि यदि हजार दो हजार मे एक महरी रख दी जाये तो शायद बेटी  की विदाई का  गम नहीं सालेगा।