गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

सत्यता और ईमानदारी की प्रासंगिगता ख़तम हो गयी है



सत्यता और ईमानदारी की प्रासंगिगता ख़तम हो गयी है

बचपन से पढ़ते - सुनते आयें हैं कि व्यक्ति को हमेशा सत्य के  मार्ग पर चलनी चाहिए। चोरी ,बेईमानी ,दूसरो का दिल दुखाना बहुत गलत है। हमेशा सच बोलनी चाहिए ,किसी का दिल नहीं दुखानी  चाहिए और ईमानदारी से अपने कार्य करने चाहिए। जैसी करनी वैसी भरनी। अन्त में जीत सत्य और ईमानदारी  ही की  होती है। ………इत्यादि इत्यादि
 पर क्या वाकई ऐसा ही होता ??नहीं बिलकुल नहीं
एक सच्चा व्यक्ति यदि सत्य की  साथ देने की कोशिश भी करता है तो अकेला पड़ जाता है ,कोई उसकी बात को सुन ना भी पसंद नहीं करता है ,वही गोल मोल बाते करने वाले झूठों कि टोली बहुत बड़ी होती है। उसकी बात लोगो को प्रासंगिक लगती है। एक ईमानदार आदमी ताउम्र अपनी झोली को ईमानदारी की हवा से भरने कि कोशिश में पस्त रहता है वहीँ उसके चारो तरफ रहने वाले बेईमान की पर्स हमेशा मस्त ही रहती है और अपने आभा मंडल से ऐसे जगमग रहता है कि ईमानदार को अपनी ईमानदारी ले दुबक जाना होता है। होती होगी कभी सत्य की जीत ,रहती होगी कभी ईमानदारी भारी। आज तो एक ईमानदार व्यक्ति अकर्मण्य और बेवकूफ होता है।
ये किताबी बातें हैं सिर्फ कि किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिए ,भावनाओं का कभी कोई मोल नहीं रहा है। यहाँ सैकड़ो उदाहरण है जब दिल पर पैर रख कर ही कोई ऊँचा उठा है।  दिल क्या होता ??मूर्खो की शब्दकोष का एक शब्द भर।
मुझे तो सबसे अधिक चिढ़ इस बात से होती कि हमें ऐसी भ्रामक बातें पढ़ाई /बताई ही क्यूँ गयी ?
बताया गया कि जैसी करनी वैसी भरनी -ईमानदार जलते रहा ,चिढ़ते रहा ,दुखी हो इन्तेजार करते रहा कि अरे !बेईमान तुम्हारी पोल एक दिन तो खुलेगी ……… पर अगला तरक्की पर तरक्की करता गया। ईमानदार सत्यवादी अंततः डरपोक ही साबित हुआ ,अंतिम हंसी की  इन्तेजार में क्यूँ कि ये गलत बात भी पढ़ाई  गयी थी कि अंतिम जीत हमेशा सच की ही होती है।
  बताया गया है हमेशा से कि झूठ नहीं बोलनी चाहिए ,झूठ के पैर नहीं होते। झूठ बोलना पाप है। पर वास्तविकता ये है कि धड़ल्ले से  लोग सच पर पर्दा डाले रखते हैं ,कौन कहता है पाप-वाप ,झूठ को तो पैरो की जरूरत ही नहीं है वोह तो आराम से पंख लगा उड़ते रहता है। सत्यवादी को अवसरवाद का ज्ञान ही नहीं होता है,बेकार जहां जो नहीं बोलनी चाहिए सच का सूरमा डाल बक आता है.
  ऐसे ही पुराने ज़माने में कई आलतू फालतू बातें बच्चो को सिखाई जाती थी कि चोरी करनी गलत बात है। "चोरी "भला ये क्या बला है? नकाब लगा काले चोर बीती समय का चरित्र है। जब चार लोग एक गलत को सही बोलने लगते हैं तो वह सच साबित हो जाता है ,उसी प्रकार जब लोग आराम से किसी  की संपत्ति हासिल कर सकतें है तो उसे होशियारी कहा  जायेगा न कि चोरी। जब सब यही कर रहें हैं तो फिर ये गलत कैसे हुई भला ?किसी चोर को पाप लगते देखा है ???कितनी शानो शौकत की जिंदगी ये जीतें हैं ,जो ये काम  न करतें हो वे  बस ललचाते -तरसते ,इसी इन्तेजार में दिन काटते हैं कि कभी तो चोरी का धन मोरी में जायेगा।

     सच !!!! अब नैतिक शिक्षा की कक्षा अब बंद कर देनी चाहिए। ……… जिस बात की प्रासंगिगता ख़तम हो गयी है उसे क्यूँ पढ़ाया /बताया जाये।