सच है, विपत्ति जब आती है,
- कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,
- क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुख से न कभी उफ कहते हैं,
- संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
- उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
- टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
- पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
- हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
- वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है
रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
- झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
- बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।
..........
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
- बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
- पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,
- सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
- भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
'दो न्याय अगर तो आधा दो,
- पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
- रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
- आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
- जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
- अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
- भगवान् कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
- यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
- मुझमें लय है संसार सकल।
-
- मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,संहार झूलता है मुझमें।
'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,- भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,- मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,- मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर, -
- नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र। - 'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
- शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,- शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
'भूलोक, अतल, पाताल देख,- गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,- यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,पहचान, कहाँ इसमें तू है।
'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,- पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख, -
- मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,फिर लौट मुझी में आते हैं।
'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,- साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,- हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,छा जाता चारों ओर मरण।
'बाँधने मुझे तो आया है,- जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,- पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,वह मुझे बाँध कब सकता है?
'हित-वचन नहीं तूने माना, -
- मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,- अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,जीवन-जय या कि मरण होगा।
'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,- बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,- विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।फिर कभी नहीं जैसा होगा।
'भाई पर भाई टूटेंगे,- विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, -
- सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,हिंसा का पर, दायी होगा।'
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,- चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,- धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,दोनों पुकारते थे 'जय-जय'! - भगवान सभा को छोड़ चले,
- करके रण गर्जन घोर चले
सामने कर्ण सकुचाया सा,- आ मिला चकित भरमाया सा
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,ले चढ़े उसे अपने रथ पर
रथ चला परस्पर बात चली,- शम-दम की टेढी घात चली,
शीतल हो हरि ने कहा, "हाय,- अब शेष नही कोई उपाय
हो विवश हमें धनु धरना है,क्षत्रिय समूह को मरना है
"मैंने कितना कुछ कहा नहीं?- विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?
पर, दुर्योधन मतवाला है,- कुछ नहीं समझने वाला है
- चाहिए उसे बस रण केवल,सारी धरती कि मरण केवल
"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम,- क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?
वह भी कौरव को भारी है,- मति गई मूढ़ की मरी है
दुर्योधन को बोधूं कैसे?इस रण को अवरोधूं कैसे?
"सोचो क्या दृश्य विकट होगा,- रण में जब काल प्रकट होगा?
बाहर शोणित की तप्त धार,- भीतर विधवाओं की पुकार
निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे
"चिंता है, मैं क्या और करूं? -
- शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?
सब राह बंद मेरे जाने,- हाँ एक बात यदि तू माने,
तो शान्ति नहीं जल सकती है,समराग्नि अभी तल सकती है
"पा तुझे धन्य है दुर्योधन,- तू एकमात्र उसका जीवन
तेरे बल की है आस उसे,- तुझसे जय का विश्वास उसे
तू संग न उसका छोडेगा,वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?
"क्या अघटनीय घटना कराल?- तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,
बन सूत अनादर सहता है,- कौरव के दल में रहता है,
शर-चाप उठाये आठ प्रहार,पांडव से लड़ने हो तत्पर - "माँ का सनेह पाया न कभी,
- सामने सत्य आया न कभी,
किस्मत के फेरे में पड़ कर,- पा प्रेम बसा दुश्मन के घर
निज बंधू मानता है पर को,कहता है शत्रु सहोदर को
"पर कौन दोष इसमें तेरा?- अब कहा मान इतना मेरा
चल होकर संग अभी मेरे,- है जहाँ पाँच भ्राता तेरे
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,हम मिलकर मोद मनाएंगे
"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,- बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,- तेरा अभिषेक करेंगे हम
- आरती समोद उतारेंगे,सब मिलकर पाँव पखारेंगे
"पद-त्राण भीम पहनायेगा,- धर्माचिप चंवर डुलायेगा
पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,- सहदेव-नकुल अनुचर होंगे
भोजन उत्तरा बनायेगी,पांचाली पान खिलायेगी
"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !- आनंद-चमत्कृत जग होगा
सब लोग तुझे पहचानेंगे,- असली स्वरूप में जानेंगे
खोयी मणि को जब पायेगी,कुन्ती फूली न समायेगी
"रण अनायास रुक जायेगा, -
- कुरुराज स्वयं झुक जायेगा
संसार बड़े सुख में होगा,- कोई न कहीं दुःख में होगा
सब गीत खुशी के गायेंगे,तेरा सौभाग्य मनाएंगे
"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,- साम्राज्य समर्पण करता हूँ
यश मुकुट मान सिंहासन ले,- बस एक भीख मुझको दे दे
कौरव को तज रण रोक सखे,भू का हर भावी शोक सखे
सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,- क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
फिर कहा "बड़ी यह माया है, -
- जो कुछ आपने बताया है
दिनमणि से सुनकर वही कथामैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा
"मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,- उन्मन यह सोचा करता हूँ,
कैसी होगी वह माँ कराल,- निज तन से जो शिशु को निकाल
धाराओं में धर आती है,अथवा जीवित दफनाती है?
"सेवती मास दस तक जिसको,- पालती उदर में रख जिसको,
जीवन का अंश खिलाती है,- अन्तर का रुधिर पिलाती है
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,नागिन होगी वह नारि नहीं - "हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,
- इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
सुनना न चाहते तनिक श्रवण,- जिस माँ ने मेरा किया जनन
वह नहीं नारि कुल्पाली थी,सर्पिणी परम विकराली थी
"पत्थर समान उसका हिय था,- सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
गोदी में आग लगा कर के,- मेरा कुल-वंश छिपा कर के
दुश्मन का उसने काम किया,माताओं को बदनाम किया
"माँ का पय भी न पीया मैंने,- उलटे अभिशाप लिया मैंने
वह तो यशस्विनी बनी रही,- सबकी भौ मुझ पर तनी रही
कन्या वह रही अपरिणीता, - जो कुछ बीता, मुझ पर बीता
"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,- राजाओं के सम्मुख मलीन,
जब रोज अनादर पाता था,- कह 'शूद्र' पुकारा जाता था
पत्थर की छाती फटी नही,कुन्ती तब भी तो कटी नहीं
"मैं सूत-वंश में पलता था,- अपमान अनल में जलता था,
सब देख रही थी दृश्य पृथा,- माँ की ममता पर हुई वृथा
छिप कर भी तो सुधि ले न सकीछाया अंचल की दे न सकी
"पा पाँच तनय फूली फूली,- दिन-रात बड़े सुख में भूली
कुन्ती गौरव में चूर रही,- मुझ पतित पुत्र से दूर रही
क्या हुआ की अब अकुलाती है?किस कारण मुझे बुलाती है?
"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,- सुत के धन धाम गंवाने पर
या महानाश के छाने पर,- अथवा मन के घबराने पर
नारियाँ सदय हो जाती हैंबिछुडोँ को गले लगाती है?
"कुन्ती जिस भय से भरी रही,- तज मुझे दूर हट खड़ी रही
वह पाप अभी भी है मुझमें,- वह शाप अभी भी है मुझमें
क्या हुआ की वह डर जायेगा?कुन्ती को काट न खायेगा?
"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,- मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,- मेरा सुख या पांडव की जय?
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?केशव! यह परिवर्तन क्या है?
"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,- सब लोग हुए हित के कामी
पर ऐसा भी था एक समय,- जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
किंचित न स्नेह दर्शाता था,विष-व्यंग सदा बरसाता था
"उस समय सुअंक लगा कर के,- अंचल के तले छिपा कर के
चुम्बन से कौन मुझे भर कर,- ताड़ना-ताप लेती थी हर?
राधा को छोड़ भजूं किसको,जननी है वही, तजूं किसको?
"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,- सच है की झूठ मन में गुनिये
धूलों में मैं था पडा हुआ,- किसका सनेह पा बड़ा हुआ?
किसने मुझको सम्मान दिया,नृपता दे महिमावान किया?
"अपना विकास अवरुद्ध देख,- सारे समाज को क्रुद्ध देख
भीतर जब टूट चुका था मन,- आ गया अचानक दुर्योधन
निश्छल पवित्र अनुराग लिए,मेरा समस्त सौभाग्य लिए
"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,- राधा ने माँ का कर्म किया
पर कहते जिसे असल जीवन,- देने आया वह दुर्योधन
वह नहीं भिन्न माता से हैबढ़ कर सोदर भ्राता से है
"राजा रंक से बना कर के,- यश, मान, मुकुट पहना कर के
बांहों में मुझे उठा कर के,- सामने जगत के ला करके
करतब क्या क्या न किया उसनेमुझको नव-जन्म दिया उसने
"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,- जानते सत्य यह सूर्य-सोम
तन मन धन दुर्योधन का है,- यह जीवन दुर्योधन का है
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,केशव ! मैं उसे न छोडूंगा
"सच है मेरी है आस उसे,- मुझ पर अटूट विश्वास उसे
हाँ सच है मेरे ही बल पर,- ठाना है उसने महासमर
पर मैं कैसा पापी हूँगा?दुर्योधन को धोखा दूँगा?
"रह साथ सदा खेला खाया,- सौभाग्य-सुयश उससे पाया
अब जब विपत्ति आने को है,- घनघोर प्रलय छाने को है
तज उसे भाग यदि जाऊंगाकायर, कृतघ्न कहलाऊँगा
"कुन्ती का मैं भी एक तनय,- जिसको होगा इसका प्रत्यय
संसार मुझे धिक्कारेगा,- मन में वह यही विचारेगा
फिर गया तुरत जब राज्य मिला,यह कर्ण बड़ा पापी निकला
"मैं ही न सहूंगा विषम डंक,- अर्जुन पर भी होगा कलंक
सब लोग कहेंगे डर कर ही,- अर्जुन ने अद्भुत नीति गही
चल चाल कर्ण को फोड़ लियासम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया
"कोई भी कहीं न चूकेगा,- सारा जग मुझ पर थूकेगा
तप त्याग शील, जप योग दान,- मेरे होंगे मिट्टी समान
लोभी लालची कहाऊँगाकिसको क्या मुख दिखलाऊँगा?
"जो आज आप कह रहे आर्य,- कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
सुन वही हुए लज्जित होते,- हम क्यों रण को सज्जित होते
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,पांडव न कभी जाते वन को
"लेकिन नौका तट छोड़ चली,- कुछ पता नहीं किस ओर चली
यह बीच नदी की धारा है,- सूझता न कूल-किनारा है
ले लील भले यह धार मुझे,लौटना नहीं स्वीकार मुझे
"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,- भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
कुल की पोशाक पहन कर के,- सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?"सिर पर कुलीनता का टीका,- भीतर जीवन का रस फीका
अपना न नाम जो ले सकते,- परिचय न तेज से दे सकते
ऐसे भी कुछ नर होते हैंकुल को खाते औ' खोते हैं
बहुत बढ़िया ...
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