सोमवार, 15 सितंबर 2014

अश्‍वत्थामा

आज कथा महाभारत से -
अश्वथामा
द्रोणाचार्य जी अनेक स्थानो मे भ्रमण करते हुए हिमालय (ऋषिकेश) प्‌हुचे।वहा तमसा नदी के किनारे एक दिव्य गुफा मे तपेश्वर नामक स्वयंभू  शिवलिग है ।यहाँ  गुरु द्रोणाचार्य जी और उनकी पत्नी  कृपि ने शिवजी की तपस्या की। इनकी तपस्या से खुश होकर भगवान शिव ने इन्हे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया।कुछ समय बाद माता कृपि ने एक सुन्दर तेजस्वी  बाल़क को जन्म दिया। जन्म ग्रहण करते ही इनके कण्ठ से हिनहिनाने की सी ध्वनि हुई जिससे इनका नाम अश्वत्थामा पड़ा। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी |जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी।
  पुत्र के जन्म पर द्रोण को महान प्रसन्नता हुई और उन्होंने योग्य विप्रों को सहस्त्रों गायें व धन दान में दिया। इससे स्पष्ट है कि उस समय द्रोण समय धन का अभाव नहीं था। कुछ समय बाद ही द्रोण परशुराम जी से विद्या प्राप्‍त करने गये । घर की आर्थिक स्थिति गिरती गयी और विपन्नता आ गयी । द्रोण आश्रम से लौटे तो घर में गाय तक न थी । अन्य ऋषि कुमारों को दूध पीते देख अश्‍वत्थामा दूध के हेतु रोता था और एक दिन द्रोण ने देखा कि ऋषि कुमार चावल के आटे का घोल बनाकर अश्‍वत्थामा को पिला चुके है और अवोध बालक – मैंने दूध पी लिया – यह कहते हुए आनन्दित हो रहा है । यह देख द्रोण स्वयं को धिक्कार उठे। उन्हें स्मरण हो आया  कि वो और द्रुपद एक ही आश्रम में थे और द्रुपद ने कहा था की जब वह राजा बनेगा तो आधा राज्य अपने मित्र द्रोण को दे देगा। बालक के लिए गाय की व्यवस्था हेतु द्रोण स्थान-स्थान पर घूमे, पर धर्मयुक्त दान नहीं मिला और वे अपने बाल – सखा द्रपुद के पास जाने को उद्यत हुए। परन्तु द्रुपद जो अब राजा बन चुका था ,ने भरे दरबार में  उनका मजाक बना दिया। 
अश्‍वत्थामा को लेकर द्रोण पाञ्चाल राज्य से कुरु राज्य में हस्तिनापुर आ गये और उसका युवावस्था तक का जीवन हस्तिनापुर में बीता। महाभारत में उल्लेख है कि द्रोण के कुरु कुमारों के आचार्य बनने से पूर्व कृप उन्हें शिक्षा देते थे और अश्‍वत्थामा भी कुरु कुमारों को बाण विद्या सिखाते थे। द्रोण फिर कौरवों और पांडवों के आचार्य हुए और अपने प्रिय शिष्यों को महारथी बनाकर जब उसे लाया गया तो उसका आधा राज्य लौटाकर उन्होंने उदारता का परिचय दिया। उत्तर पाञ्चाल का आधा राज्‍य लेकर द्रोण ने अश्‍वत्‍थामा को दे दिया, इसकी राजधानी अहिच्‍छ्त्र थी ।अश्‍वत्थामा को भी द्रोण ने धनुर्वेद के सारे रहस्य बता दिये। सारे दिव्यास्त्र, आग्नेय, वरुणास्त्र, पर्जन्यास्त्र , वायव्यास्त्र , ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र, ब्रह्मशिर आदि इसे सिध्द हो गये और द्रोण, भीष्म, परशुराम की कोटि का धनुर्धर वह बन गया। कृप, अर्जुन व कर्ण भी उसे अधिक श्रेष्ठ नहीं थे ।नारायणास्त्र का प्रयोग तो द्रोण के अतिरिक्त और किसी को ज्ञात नहीं । इसी का प्रयोग अश्‍वत्थामा अपने पिता की मृत्यु पर क्रुध्द हो पाण्डव पक्ष पर करता है ।

अश्‍वत्थामा के ब्रह्मतेज, वीरता, धैर्य, तितिक्षा, शस्त्रज्ञान, नीतिज्ञान, बुध्दिमत्ता के विषय में किसी को संदेह नहीं है । महाभारत काल के सभी प्रमुख व्यक्ति अश्‍वत्थामा के बल, बुध्दि व शील के प्रशंसक हैं।
भीष्म रथियों व अतिरथियों की गणना करते हुए राजा दुर्योधन से अश्‍वत्थामा के बारे में कहते हैं कि महाभारत के युध्द को पूर्णता और परिणति को यही वीर पहुंचाएगा और उनका यह कथन सत्य निकला। 
द्रौण को अपने पुत्र अश्वत्थामा से बहुत प्यार था। शिक्षा में भी अन्य छात्रों से भेदभाव करते थे। जब उन्हें सभी कौरव और पांडव राजकुमारों को चक्रव्यूह की रचना और उसे तोडऩे के तरीके सिखाने थे, उन्होंने शर्त रख दी कि जो राजकुमार नदी से घड़ा भरकर सबसे पहले पहुंचेगा, उसे ही चक्रव्यूह की रचना सिखाई जाएगी। सभी राजकुमारों को बड़े घड़े दिए जाते लेकिन अश्वत्थामा को छोटा घड़ा देते ताकि वो जल्दी से भरकर पहुंच सके। सिर्फ अर्जुन ही ये बात समझ पाया और अर्जुन भी जल्दी ही घड़ा भरकर पहुंच जाते। 


जब ब्रह्मास्त्र का उपयोग करने की बारी आई तो भी द्रौणाचार्य के पास दो ही लोग पहुंचे। अर्जुन और अश्वत्थामा। अश्वत्थामा ने पूरे मन से इसकी विधि नहीं सीखी। ब्रह्मास्त्र चलाना तो सीख लिया लेकिन लौटाने की विधि नहीं सीखी। उसने सोचा गुरु तो मेरे पिता ही हैं। कभी भी सीख सकता हूं। द्रौणाचार्य ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन इसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। जब महाभारत युद्ध के बाद अर्जुन और अश्वत्थामा ने एक-दूसरे पर ब्रह्मास्त्र चलाया। वेद व्यास के कहने पर अर्जुन ने तो अपना अस्त्र लौटा लिया लेकिन अश्वत्थामा ने नहीं लौटाया क्योंकि उसे इसकी विधि नहीं पता थी। जिसके कारण उसे शाप मिला। उसकी मणि निकाल ली गई और कलयुग के अंत तक उसे धरती पर भटकने के लिए छोड़ दिया गया। 

अगर द्रौणाचार्य अपने पुत्र मोह पर नियंत्रण रखकर उसे शिक्षा देते, उसके और अन्य राजकुमारों के बीच भेदभाव नहीं करते तो शायद अश्वत्थामा को कभी इस तरह सजा नहीं भुगतनी पड़ती।

महाभारत युद्ध में ये कौरव-पक्ष के एक सेनापति थे। उन्होंने भीम-पुत्र घटोत्कच को परास्त किया तथा घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा का वध किया। उसके अतिरिक्त द्रुपदकुमार, शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक, जयाश्व तथा राजा श्रुताहु को भी मार डाला था। उन्होंने कुंतीभोज के दस पुत्रों का वध किया। पिता-पुत्र की जोडी ने महाभारत युध्द के समय पाण्डव सेना को तितर-बितर कर दिया।पाण्डवो की सेना की हार देख़कर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कुट-निति सहारा लेने को कहा।इस योजना के तहत यह बात फेला दी गई कि "अश्वत्थामा मारा गया" जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो उन्होने जवाब दिया-"अश्वत्थामा मारा गया परन्तु हाथी"॥ श्रीकृष्ण ने उसी समय शन्खनाद किया,जिसके शोर से गुरु द्रोणाचार्य आखरी शब्द नही सुन पाए।अपने प्रिय पुत्र की मोत का समाचार सुनकर आपने शस्त्र त्याग दिये और युध्द भूमि मे आखे बन्द कर शोक अवस्था मे बेट गये।गुरु द्रोणाचार्य जी को निहत्ता जानकर द्रोपदी के भाई द्युष्टद्युम्न ने तलवार से आपका सिर काट डाला। गुरु द्रोणाचार्य जी की निर्मम हत्या के बाद पांडवों की जीत होने लगी।इस तरह महाभारत युद्ध में अर्जुन के तीरों एवं भीमसेन की गदा से कौरवों का नाश हो गया।दुष्ट और अभिमानी दुर्योधन की जाँघ भी भीमसेन ने मल्लयुद्ध में तोड़ दी। अपने दुर्योराजा धन की ऐसी दशा देखकर और अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु का स्मरण कर अश्वत्थामा अधीर हो गया। दुर्योधन पानी को बान्धने की कला जानता था।सो जिस तालाब के पास गदायुध्द चल रहा था उसी तालाब मे घुस गया और पानी को बान्धकर छुप गया।दुर्योधन के पराजय होते ही युद्ध में पाण्डवो की जीत पक्की हो गई थी सभी पाण्डव खेमे के लोग जीत की खुशी मे मतवाले हो रहे थे। घायल अवस्था में दुर्योधन ने अश्वथामा को सेनापति नियुक्त किया।उलूक द्वारा रात्रि में कौवों पर आक्रमण कर उनके विनाश से द्रोणि को रात्रि में आक्रमण करने की प्रेरणा मिलती है।  उस रात्रि अश्वथामा ने जो कु कृत्य किया उसके चलते उसे तीनो जहां में जगह नहीं मिली और वह मौत को भी तरसता रह गया।शिविर पर रात में आक्रमण की योजना द्रोणि ने बनायी, कृप और कृतवर्मा को विवश हो उसका साथ देना पडा । वे दोनों शिविर द्वार पर खडे हो गये, केवल अश्‍वत्थामा भीतर गया। अश्‍वत्थामा ने वहाँ धृष्टद्युम्न को सोते से चरण प्रहार करके जगाय और लात-धूंसों के प्रहारों से मार डाला। शोर सुनकर प्रहरी जाग गये, स्त्रियाँ चिल्लाने लगीं। योध्दा शस्त्र सज्जित होने लगे। इस बीच उत्तमौजा को भी द्रोणि ने मार डाला। किन्तु इसके बाद तो सभी जाग गये और चारो ओर से अश्‍वत्थामा पर प्रहार करने वीर जा पहूँचे, किन्तु उसने युध्द करते हुए युधामन्यु, सुतसोम, शतानीक, श्रुतकर्मा, और शिखण्डी को मार डाला। योध्दा जब शिविर से भागने लगे तो कृप और कृतवर्मा ने तीन ओर से आग लगा दी और द्वार पर खडे हो गये, भागते हुए योध्दाओं को यमलोक पहुंचाने लगे। . 
 उसने रात के अँधेरे में पांडवों के खेमे में जा कर पांचो भाइयों के सर काट दुर्योधन के पास ले गया। अँधेरे में ही दुर्योधन ने भीम के सर को मुक्के से फोड़ा जो तरबूज की भाँती फूट गया। दुर्योधन तुरंत समझ गया कि इसने  पांडव पुत्रों की हत्या कर दिया है ,विव्हल हो उसने कहा भी नराधम तुमने हमे वंशहीन कर दिया। 


शिविर को तहस-नहस करके अश्‍वत्थामा पलायन कर जाता है, किन्तु क्रुध्द भीम वेगवार रथ से उसका पीछा करते हैं जब भीम अश्‍वत्थामा का पीछा करते हुए जाते है तो श्रीकृष्ण अर्जुन व युधिष्ठिर को सावधान करते है कि हमें अश्‍वत्थामा के स्वभाव को देखते हुए भीम को एकाकी और अरक्षित नहीं छोडना चाहिए ।वे उसके स्वभाव का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वह चपल, क्रूर, दिव्यास्त्रवान किन्तु दुरात्मा है ।
ब्रह्‍मशिर नामक अस्त्र का ज्ञान द्रोण ने प्रिय अर्जुन को दिया है यह जानकर अश्‍वत्थामा ने भी इसके लिए हठ किया तब द्रोण ने पुत्र हठ मानते हुए उसे अप्रसन्न्तापूर्वक यह अस्त्र दिया और सावधान किया इसका प्रयोग महान विपत्ति में भी पडकर नहीं करना चाहिए और मनुष्यों के विरुध्द तो कभी नही  .

भीम अश्‍वत्थामा को व्यास जी के आश्रम में पा जाते हैं और उनमे उग्र वार्तालाप होता है । इसी बीच श्रीकृष्ण व अर्जुन भी आ जाते हैं उन तीनों को देख अश्‍वत्थामा के हृदय में भय का संचार होता है । चूँकि उस समय वह मुनिवेश में है, शस्त्र, अस्त्र धारण नहीं किये है, अतः बचने के लिए वह ब्रह्‍मशिर नामक दिव्यास्त्र का आह्‍वान करता हैं। उधर श्रीकृष्ण की आज्ञा से अर्जुन भी ब्रह्‍मास्त्र इसके प्रतिकार में चला देते हैं । दोनों दिव्यास्त्र आकाश में टकराने चले जाते हैं तो व्यास व नारद मुनि प्रकट हो दोनों वीरों को आदेश देते हैं कि यह महाविनासकारी कृत्य न करो । अपने-अपने अस्त्र लौटाओ ।

अर्जुन ऋषि की आज्ञा से ब्रह्‍मास्त्र का प्रतिसंहरण करते है, किन्तु अश्‍वत्थामा प्रयास करने पर भी विफल रहता है । अपनी विवशता ऋषि को बताता है । वे उसकी निन्दा करते हैं । तब अश्‍वत्थामा कहता है कि पाण्डुपुत्रों की वध की कामना से उठाया गया यह अस्त्र किसी पाण्डव पर न गिरे यह गर्भस्थ पाण्डुवंशी पर गिंरे। व्यास कहते हैं कि अब इसी वुध्दि में स्थिर रहो ताकि दिव्यास्त्र गर्भ पर गिरकर ही शान्त हो जाये और इस प्रकार अपनी विवशता व ऋषि की सम्मति से वह प्रहार होता है, ताकि पाँचो पाण्डव बच जायें ।तब भगवान व्यास उसे आदेश देते हैं  कि तुम अपने शिर की मणि दे दो, अस्त्र त्यागो, पाण्डव तुम्हें प्राणदान दे देंगे । वह कहता है भगवन आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, यह रही मणि और यह रहा मैं । किन्तु दिव्यास्त्र कैसे रोकूँ, यह तो अमोघ है। वह दिव्यास्त्र  जा  कर  उत्तरा के गर्भ  से  टकरा  गया। 
 अश्‍वत्थामा के इस कृत्य पर भगवान श्री कृष्ण को बहुत क्रोध आता है । वे उसकी निन्दा करते हैं, उसे कायर, पापी, वालघाती बताते हैं और शाप देते हैं कि तुम ३०००वर्षों तक भूतल पर निर्जन स्थानों में भटकते रहोगे, तुम्हारे शरीर से पीप तथा रक्त की गंध आती रहेगी , तुम्हें किसी का साथ नही मिलेगा। अभिशप्‍त अश्‍वत्थामा व्यास जी से कहता है जो भी भगवान पुरूषोत्तम ने कहा वह सत्य हो। हे भगवान मैं अब आपके अतिरिक्त किसी पुरूष के साथ नहीं रहूँगा। यह कहकर विषादयुक्त मन से अश्‍वत्थामा वन को चला गया। इस प्रकार हिंसा और अभिशाप में क्रोध और विषाद में इस महान विद्वान् और दुर्धर्ष वीर की कथा का समापन होता है।
कृप,कृतवर्मा  तथा द्रौणि तीनों ने महाविनाश कर यह संवाद दुर्योधन से कहा फिर राजा धृतराष्ट्र को बताया और कहा कि हम तीन हैं और पाण्डव पाँच हैं और कोई नहीं बचा ।

फिर वे तीनों दिशाओं में चले गये कृप हस्तिनापुर गये, कृतवर्मा द्वारिका तथा द्रौणि व्यास के साथ वन चले गये ।
 कहतें हैं अस्वथामा आज भी जिन्दा है और जंगलो और पहाड़ो में भटकता है।  







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