मंगलवार, 1 जुलाई 2014

सफर रेलगाड़ी की - लघु कथाएं

पिछले दिनों मुझे ट्रेन से एक लम्बी यात्रा करनी पड़ी। मेरे सामने वाले चार बर्थ पर एक परिवार था। दो बच्चे ६ साल और दस के होंगे ,दिन भर बच्चों की धमा चौकड़ी से मन लगा रहा। शाम होते होते बच्चो को उन्होंने डाँट -डपट ऊपर के बर्थ पर बैठा दिया। खुद दोनों आपस में मशगूल हो गए ,अनायास वे बिलकुल अंतरंग हो गए। बोगी में उजाला था ,बच्चे सीट पर जगे ही हुए थे। आस -पास हम जैसे सहयात्री भी दीदे फाड़े हुए ही थे। युगल दम्पति इतने लीन अवस्था में थे कि सबकी उपस्तिथि गौण हो चुकी थी। कितना भी नजर उलटी दिशा में रखूं ,एक हाथ की दूरी बिना चश्मे की भी रील चला ही रही थी। बड़ी ही अटपटी सी स्तिथि हो गयी थी।
कौन कहता है देश में तरक्की धीमी गति से हुई है ,पश्चिमी सभ्यता का विकास साफ़ साफ़ मोटे अक्षरों में उसदिन बोगी में नजर आई। हम ही थोड़े सुस्त रहें जो आज भी उम्र अनुसार अनजान महिलाओं को भी दीदी /माता जी /आंटी या पुरूषों को भैया/अंकल जी इत्यादि सुनने/समझने के आदी बने हुएं हैं।






रात भर का ट्रेन से सफर था ,एसी बोगी के एक कूपे में दो लडकियां चढ़ी और एक अंकल जी। अंकल जी ट्रेन चलते ही खर्राटे लेने लगे। तभी एक लड़का दूसरी   बोगी से आया ,एक लड़की चली गयी (शायद दुसरे बोगी में ). दोनों की अंतरंगता और घनिष्टता सामाजिक नियमो /वर्जनाओं को तोड़ती रही। हम जैसे  और मुसाफिरों ने असहजता से रात गुजारी। सुबह नींद खुली दोनों संयत से बैठे हुए थे और अंकल जी इंटरव्यू ले रहे थे। अच्छा तो हॉस्टल से घर जा रही हो ,ओह तो ये तुम्हारा भाई होगा। अच्छा किया बेटा बहन को लेने चले आये ,जमाना बहुत खराब है। रात भर का हमारा मनोरंजन अब टर्निंग पॉइंट ले रहा था और तथाकथित भाई - बहन चेहरा देखने लायक बन रहा था। 





यूं ही चलते चलते 
रेलगाड़ी में लोग फुरसत से बैठ अपने सहयात्री से खूब ज्ञान बघारते दीखते हैं। राजनीती हो ,देश की ताज़ा हालत हो ,नेताओ के कारनामे किसी भी टॉपिक पर बहस या भाषण देते महानुभाव मिलते हैं। देश और रेल को तो गाली देना प्रिय शगल होता है। चाय पी पेपर कप को नीचे लुढ़काते और मूंगफली छीलते हुए ,फूँक कर उसके छिलके को उड़ाते जब कोई रेल विभाग की ऐसी तैसी करता है तो पता नहीं क्यों हज़म नहीं होता है। कुछ देर पहले खरीदा हुआ अखबार मुझसे मांग कर पढ़ने की थोड़ी एक्टिंग करने के पश्चात जमीन पर बिछा दिया जाता है ,पानी सोखने के लिए जो उन्होंने ही गिराया है। गरियाते हुए ज्ञानी जी बोलेंगे कि हालत देखी है टॉयलेट की ,जितनी गंदगी है। मन होता है बोले आपने तो यहीं टॉयलेट बना दिया है। कोई बुड्ढी महिला जिन्हे लोअर बर्थ नहीं मिल पायी है गिड़गिड़ाती है पर उस समय रूल की बात करने लगेंगे या इधर उधर देखने लगेंगे। वहीं किसी दूसरी महिला सहयात्री को वो भी यदि अकेली सफर कर रही हो तो उसका गॉड फादर बन जाना उनका कर्तव्य ही हो जाता है। कोई कोई परिवार तो मानो रेल में खाने के लिए ही यात्रा कर रहा होता। ये बड़े बड़े टिफ़िन के डिब्बे खुलने लगते हैं और बकायदा फैल पसर इत्मीनान से बुफे करते हैं। वहीँ कोई ऐसा भी होता जिसे हर फेरी वाले के धंधे का ध्यान रखना होता है यानी सब से कुछ ना कुछ खरीदेंगे ही।
यूं ही चलते चलते सफर में कुछ याद रह जातें हैं बाकी रेल से उतरते ही अजनबी हो जातें हैं।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें