गुरुवार, 31 जुलाई 2014

पापी,मनहूस

पापी
पूरा गांव बाढ़ के चपेट में आ गया था ,बहुत सारे तो बह गए। जो बचे थे वो नौका में बैठ जा रहें थें। कुछ श्रेष्ट व विशिष्ट लोग ही अब बच रहें थे जो अपनी ख़ास नौका में बस जाने ही वाले थे कि एक औरत दौड़ती हुई आई और नाव पर सवार हो गयी। समवेत स्वर उभरा "अरे ये अधम वेश्या ",इस पापिन को ना बैठाओ। इसके दुर्भाग्य और पाप हमें भी ले डूबेगी। पीठ पर बच्चे को बांधी बेबस ने कातर स्वर से एक कोने में बैठ जाने और जान बचाने की गुहार लगाई। घृणा के कई बोल उभरे "उफ़! एक तो कुकर्मी उसपर पाप की गठरी पीठ पर,भला नैया       कैसे झेलेगा इनके बोझ को"। अब वह आक्रामक हो उठी ,सभी की तरफ ऊँगली घूमाते हुए बोली "तुमसब में ऐसा कौन है जो मेरे द्वार ना आया होगा,ये गठरी भी तुमलोगो की ही है जिसे मैं ढो रहीं हूँ " . ग्राम पुरुषों को अब क्रोध आ गया उफनती नदी में ही उन्होंने उसे फ़ेंक दिया। संयोग से एक टूटे दरवाजे का लकड़ी का तैरता हुआ पल्ला उसके हाथ लगी ,बच्चे को लिए दिए वह बैठ गयी। उसने मुड़ कर नौका की तरफ देखा ,अचानक तेज धार में नौका पलटी और सारे श्रेष्ठ जनों की जल समाधी हो गयी......... जाने किसके भाग्य से अब तो तैर रही थी।




मनहूस 
बड़ी भयानक रात थी,गरजती और बेहद कड़कती। पहाड़ों पर यूं भी बारीश कहर ही बन टूटती है। माता के दर्शनों को ऊपर चढ़ता एक जत्था एक ढाबे में बारिश से बचने हेतु शरण लेने घुसा। आसमान फटा जा रहा था ,बिजली बूंदो से होड़ ले रही थी। तभी एक महिला गोद में छोटे बच्चे को लिए बचते बचाते उसी आश्रय में घुसी। ढाबे वाला उसे जानता था यूं कहें उसपर दाल नहीं गली थी सो खुन्नस भी रखता था। सबकी नजरें अब उसपर टिकी थी ,मोटे पेट वाले ने माला फेरते चुहलबाज़ी की कौन है बे ये ?ढाबेवाले ने चाय पकड़ाते कहा "बड़ी ही मनहूस है मालिक ,जन्मते माँ को खा गयी ,पालने वाले पिता को भी ना छोड़ा और अभी कुछदिन पहले ही पति को भी चबा डाला है"। " राम राम ,ऐसी प्रलय की रात में ऐसी मनहूस की संगत" माला फेरने की गति बढ़ गयी थी। दूसरे ने हाँ में हाँ मिलाया ,इसकी बदनसीबी कहीं काल ना बन जाए हमसब के लिए। औरत सिमटी हुई याचना करने लगी "बच्चा बीमार है दया! बड़े लोग"। ढाबे वाले की कुटिलता पूरे ढाबे पर फैल गयी। सबने उसे धक्के दे जबरदस्ती वहां से निकल बाहर कर दिया ,घिसटती हुई वह बाहर गिरी ही थी कि तभी जोरो से बिजली चमकी और लपलपाती हुई ढाबे पर गिर गयी। 
उस ढाबे में उसदिन कोई नहीं बचा था अलबत्ता महिला और बच्चा जरूर बच गए थे। अभिशप्त ढाबा खंडहर बन आज भी अपनी बेनूरी और बदनसीबी पर रो रहा है। बिजली से झुलसी काली दीवारे ,टूटे छत और वीरनापन आज भी अपनी मनहूसियत बयां करती हैं।

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

२६ तारीख

२६ तारीख
मैं यहां किसी अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं दे रही हूँ। बस ये एक संयोग है की विभिन्न महीनो व अलग अलग वर्ष में २६ तारिख को कुछ  अनहोनी  मनहूस सी विशेष घटनाएं घटी हैं।   ये सिर्फ १० सालों का ब्यौरा है।
१-याद कीजिए 26 जनवरी 2001 की वह सुबह। जब सारा देश गणतंत्र दिवस की सुनहरी भोर में तिरंगा फहराने की तैयारी कर रहा था। और काँप उठी थी धरती। गुजरात के विनाशकारी भूकंप ने हजारों की संख्या में जनता की बलि ले ली। कितने ही मासूम होश में आने से पहले, बिना किसी दोष के, समा गए धरती की गोद में। उस दिन की भयानक याद आज भी डरा जाती है।
२-इतिहास में 26 फरवरी 2002 की दिनांक भी एक काले दिन के रूप में दर्ज है। गोधरा कांड की लपलपाती लपटों में ‍‍कितने ही दिल झुलस गए। बार-बार बदलते बयानों के तमाशों के बीच गोधरा ट्रेन की राख में सच दब कर रह गया।
३-26 अगस्त 2003 में नासिक के कुंभ मेले में सैकड़ों लोग मारे गए।
४-26 दिसंबर 2004 में उमड़ी सूनामी का कहर सिहरा देता है। हत्यारी लहर ने हजारों मानवों को निगल लिया। विकास का दावा करने वाला प्रगतिशील इंसान स्तब्ध सा खड़ा रह गया।
५-26 जून 2004 में गुजरात में आई भीषण बाढ़ ने जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया।
६-26 जुलाई 2005 में मुंबई की असंयमित बाढ़ आँसूओं का सैलाब लेकर आई। इस बाढ़ ने मुंबई के घर-घर में बेबसी की छाप छोड़ी।
७-26 मई 2007 में गोवाहाटी में हुए ब्लास्ट ने सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया।
८-26 जुलाई 2008 के अहमदाबाद ब्लास्ट ने प्रशासन की नींद उड़ा दी।
९  -6/11 मुंबई हमले में सैकड़ों लोगों की नृशंस हत्या ने हर भारतवासी को छलनी कर दिया। देश के कर्मठ सिपाही, पुलिस अधिकारी खिलौनों की तरह हमारे सामने नष्ट कर दिए गए।
अंधविश्वास की बात ना करें तब भी सावधानी के संकेत तो देती ही है 26 तारीख। काश, कोई 26 शुभता लेकर आए गणतंत्र दिवस की तरह।

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

सच्चा मित्र

आज थोड़ा मन उदास था ,बस यूं हीं। एक मित्र की कमी खल रही थी । इधर उधर घर में घूमती हुई उस ओर नज़र चली गयी जहां बहुत सारे लोग बैठे हुए थे ,सारे जाने पहचाने प्रिय मेरे अपने। तभी शिवानी ने हाथ बढ़ाया और कहा आओ कृष्णकली और सुरंगमा तुम्हारा इन्तेजार कर रहीं थीं। बगल में देसी शेक्सपिअर प्रेमचंद बैठे मुस्कुरा रहें थें। नमक के दरोगा और निर्मला को नमस्ते करते ही कृष्णा सोबती जी जिंदगीनामा बाँचती मिली। पद्मभूषण भीष्म साहनी की तमस की उपस्तिथि ने मुझे विचलित कर दिया कि एक और पद्मभूषण कमलेश्वर जी अपनी फिल्मो छोटी सी बात ,रंग बिरंगी ,आंधी इत्यादि से मन बहलाने लगे। कब दिन गुजर गया कब शाम ढल गयी। यशपाल ने मेरी तेरी उसकी बात ऐसी सुनाई कि रात गुजर गयी। सूर्य की अंतिम किरण से पहली किरण तक सुरेन्द्र वर्मा जी के नाटको ने उलझाये रखा।
कल फिर मिलने का वादा कर मैं देवकीनन्दन खत्री ,रेनू , अमृता प्रीतम ,श्री लाल शुक्ल ,हरिवंश राय और कई हिन्दीकारों से मैंने प्रफुल्लित मन से विदा लिया। सच है पुस्तकों से बढ़ कर कोई मित्र नहीं।

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

राजा का टीला,रिश्ते

राजा का टीला 
( एक पुरानी कहानी,सन्दर्भ नया )
कुछ बच्चे खेलते खेलते एक पुरानी खंडहर में चले गएँ। अचानज राजू की आवाज आई - सेनापति सेना को कूच करने की आज्ञा दो। महामंत्री आप को मैंने सच्चाई को पता लगाने कहा था ,क्या किया आपने ?सब मुड़ कर देखने लगे ,राजू एक टीले के ऊपर चढ़ा हुआ था। उसके चेहरे पर एक आभा थी और बिलकुल कहीं के राजा जैसे बोल रहा था। सीमा हंसती हुई उसका हाथ पकड़ ऊपर चढ़ गयी और उसे धक्का दे दिया ,अब सीमा बोल रही थी - न्याय होगा ,मेरे दरबार में अन्याय हो ही नहीं सकता है। महामंत्री दोनों पक्षों को हाजिर करो। अब राजू सामान्य सा दिख रहा था और वो आब-ताब अब सीमा के चेहरे पर थी। जल्द ही बच्चो को समझ आ गयी कि उस टीले पर जो चढ़ता है वह राजा सा व्यवहार करने लगता है। धीरे धीरे वह टीला राजा का टीला के नाम से मशहूर हो गया।
वैसे ही हमारे देश की प्रधान मंत्री की कुर्सी कुछ दिनों में हो गयी है। वाचाल हो या मौन ,जो उसपर विराजमान होता है वो मौनी बाबा हो जाता है।





पाणिग्रहण के वक़्त उसकी लाल चुनार और उसके पीले अंगोझे को अक्षत  आशीर्वाद से अभिमंत्रित किया था। अभी दो कदम ही चले थे कि  अविश्वास और नफरत की बेल ने अपनी जड़ें जमा ली। प्यार का रिश्ता कब नफरत के रिश्तों को अपना लिया महसूस ही नहीं हुआ। दरारें पड़ने लगीं उनके प्यार में ,गृहस्थी में और विश्वास में। हर वो चीज जो उनका साझा था उसमे दरारे होतीं गयीं। अविश्वास और गलतफहमियों ने आपस की समस्त सुषमा ,नमी और आद्रता को सोख लिया। रिश्ते बेजान -बंजर -शुष्क हो गए। पर …………… दरारों की अनंत चादर पर दो नन्हे कोपल अभी भी मौजूद थे -उनके बच्चे। नन्ही जान पर रिश्तों की दरारों को भरने में मशगूल। उनके ही सर पर उस ओस और आशा की मटकी थी जिनमे इस बंजर होती जा रही रिश्तों को फिर से जीवंत और हराभरा करने की क्षमता थी। 

मनमौजी दरजी

ईश्वर बड़ा ही
 है। हम कितना भी उसे डिज़ाइन और कट समझातें हैं,वह सिलता अपनी मन का ही है। हम चाहें ना चाहें पहनना उसे ही पड़ता है। शुरू में भले वह फिट ना लगता हो पर धीरे धीरे हम उसी लिबास के आदी हो जातें हैं  और वो हम पर फबने भी लगता है।


मनोविज्ञान,भूत ,चढ़ावा

मनोविज्ञान 
कल से सब भूत - प्रेत से डरा रहे हैं ,एक सच्ची घटना ये भी 
वो लोग केकड़ा बड़ी पसंद से खाते थे। बड़े भाई को दूसरे शहर जाना था ,परन्तु जाने के पहले कुछ देर छोटे भाई के साथ केकड़े की खोज में चला गया। दोनों नदी के पास गड्ढा खोद केकड़ा खोज रहे थे ,तभी बड़े भाई को गड्ढे में काट खाया। उसने जल्दी से हाथ बाहर निकाला और छोटे को बोला देखो यहाँ लगता है की है ,तुम देखो मैं चला और वो बस से चला गया। पहुँच के फोन भी कर दी। दो ही दिनों के बाद छोटे भाई को अपने पास आया देख उसे आश्चर्य हुआ ,अरे मैं तो दो दिन पहले ही आया था मिल कर। छोटे ने कहा कि तुम ने जिस गड्ढे में मुझे केकड़ा खोजने बोला वह दरसल सांप का बिल था। तुम्हे कुछ काटा भी था अंदर, सो देखने चला आया कि तुम कैसे हो। 
बड़ा भाई जो तब तक बिलकुल ठीक था यह सुनते ही पीला पड़ने लगा। हाथ -पांव काँपने लगे और कुछ ही देर में सांप के काटने सारे लक्षण उभर आये और शाम होते होते चल बसा।





भूत 
एक बार हम सब भाई बहन नानी के घर उनके गांव गए थे। पहले नानी - दादी के आँचल में कहानियों की पोटली छुपी होती थी। गांव में शाम से ही बिजली कट गयी थी। रात को खाना खाने के बाद कमरे में लालटेन की रौशनी में हम सब नानी को घेर उनकी पोटली खुलने की इन्तेजार में थे। नानी लोटे में दूध का घूँट लेने लगी और एक के बाद एक नायाब किस्सा निकलने लगा। जादुई- छड़ी,राजा-रानी ,राक्षस,भूत -प्रेत और उड़ते घोड़े। ...... धीरे धीरे नींद सबको आगोश में लेने लगी ,परियों ने अभी पंख फैला उड़ना शुरू ही किया था कि मेरी भी आँखे झपकने लगी। अचानक ठन ठन की आवाज से नींद खुली। कोई चमकने वाली चीज पूरे कमरे में इधर से उधर लुढ़क रही थी ,लालटेन की लौ बिलकुल मध्यम पड़ गयी थी। मोनू ने आँखे मलते हुए कहा,ये तो लोटा है लगता है इसमें कुँए वाला भूत घुस गया है। हम सब चीखे मार एक दुसरे से लिपट गए।भूत का प्रकोप पता नहीं गहन रात्रि में ही क्यों होता है ? लोटे वाला भूत कभी ऊपर कभी नीचे हो रहा था। उसने लालटेन को भी टक्कर मार उलट दिया,अब तो कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा था सिर्फ आवाजें दहशत किये हुई थी। नानी शायद छत पर सोने चली गयीं थी। फिर आवाजे कमरे के बाहर से आने लगी ,लोटे वाले भूत ने दालान में चीजे उलटनी शुरू कर दी थीं। घड़े की फूटने की आवाज ,फिर बर्तन धनधनाने की आवाजे। हमसब डर के मारे अब घिघिया रहे थे। जाने कब अँधेरे में नींद भी आ गयी। 
सूरज की पहली किरण के संग आँख खुल गयी ,कमरे में बहुत तबाही हुई थी। शोर बंद था यानी भूत जा चुका था ,दालान की तरफ नजर गयी तो भूत भी दिख ही गया। लोटे में बिल्ली का सर फंसा हुआ था और रात भर की उछाल कूद के बाद निढाल पड़ी थी।

 चढ़ावा
कल मुझे अपनी पहली सैलरी मिली थी। जैसे ही फोन पर मैसज आया कि अकाउंट में तनखाह आ गयी मैंने तुरंत माँ को फोन किया। माँ सहित घर में सभी बड़े प्रसन्न हुए। आशीर्वाद के साथ माँ ने कहा कि अपनी पहली कमाई का एक हिस्सा पहले मंदिर में भगवान को चढ़ा दो। फिर जो चाहे करना। आज छुट्टी थी माँ ने सुबह ही फोन से उठा दिया कि मंदिर जाओ। मैंने एटीएम से पैसा निकला और पास ही एक मंदिर में चली गयी। भगवान को प्रणाम किया और दान पेटिका में डालने हेतु रुपैया पर्स से निकलने चली ही थी कि हृष्ट-पुष्ट ,गोरे चिट्टे पण्डे पर निगाह चली गयी। भगवान के समक्ष घी के बड़े बड़े दिए जल रहें थे। मोटा पुजारी चढ़ावे के फल फूल अलग कर रहा था ,जो पैसे /नोट मिल रहें थे उन्हें कमर में खोंसे जा रहा था। पता नहीं किस भाव में मैं ग्यारह रूपये चढ़ा कर  बाहर आ गयी। 
 ३० दिनों से रोज अनाथ बच्चो के एक स्कूल से हो कर गुजरती थी,कदम अनायास ही उधर चल पड़े। रास्तें में कुछ बण्डल कापी और कलम खरीद लिया। फिर मन किया मिठाई और फल भी ले लिया। 

  बाद में माँ ने रिपोर्ट लिया कर लिया पूजा ?चढ़ा दिया चढ़ावा ?मैंने कहा हाँ माँ बड़े ही अच्छे मंदिर में गयी थी ,बड़ी संतुष्टि हुई।    



भूत -२ 
आज ऑफिस से मुझे निकलने में बहुत देर हो गयी थी। झमाझम बारिश और घनी अँधेरी रात। धीरे धीरे कार चलाते मैं चल रही थी ,तेज बारिश के समक्ष बिलकुल धुंधली सी सड़क दिख रही थी कि अचानक एक छोटी सी बच्ची कार के सामने आ गयी ,ब्रेक लगाते लगते भी उसे धक्का लग ही गयी। मैं नीचे उतरी पास जा कर देखा पूरे खून से लथपथ एक ६-७ साल की बच्ची पड़ी हुई है ,चेहरा खून से भींगा हुआ। मैं घबरा गयी,घर पास ही था जल्दी से घर में घुस दरवाजा खटखटाने लगी,माँ ने खोला। मुझे कपडे बदलने बोल माँ चाय बनाने चली गयी। तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया खोला तो देखती हूँ वही जख्मी लड़की थी ,आँखे तरेर उसने कहा,"मुझे सड़क पर ही छोड़ आई ?" पता नहीं क्यों मैं डर के मारे गश खा गयी। 
 होश आया तो बिस्तर पर थी ,माँ घबराई सी मुझे देख रही थी। सुबह कार निकालने लगी तो गेट के पास वही जख्मी लड़की फिर दिखी ,उसीतरह खून से लथपथ। कार छोड़ मैं घर में वापस भागी और माँ को बताया। माँ को समझते देर ना लगी कि उस रात मेरी गाडी से जो बच्ची मरी थी वही भूत बन मुझे दिख रही है। माँ ने घर में काम करने वाले मुलाजिमों से बात किया ,बाई ने एक तांत्रिक का नाम सुझाया। 
 तांत्रिक हमे घर के पिछवाड़े में बुलाता ,कुछ धूप -धूआँ करता तो भूत फिर सामने आ जाती ,माँ का विश्वास बढ़ते जा रहा था और मेरा डर घटते। हज़ारो रुपये उसने ऐंठ लिए। 
 एक दिन अलसुबह मेरी नींद खुल गयी तो लॉन में टहलने चली गयी। अचानक वही बच्ची साफ सुथरी, सर्वेन्ट्स टॉयलेट की तरफ जाती दिखी। मैंने दौड़ कर उसे पकड़ा तब भेद खुला कि ये बाई और माली की मिली भगत थी जो हम माँ -बेटी को अकेले रहते देख ठगने का प्लान बनाया था। 



अजीब सी रात थी ,मुझे घर जाने में देर हो गयी थी। पानी मूसलाधार बरसे जा रहा था और मैं अकेली चली जा रही थी। हवा से फोल्डिंग छाता बार बार उलट रहा था। घर अब आ ही गयी कि तभी मैंने उसे देखा ,सड़क किनारे छोटी सी छतरी नुमा प्लास्टिक की एक रेहड़ी थी ,८-१० किताबे लिए वो भयानक चेहरे वाला बैठा था। मुझे देखते जोर से बोला क्या आप भूतों पर विश्वास करतें हैं ?इन्हे लीजिये -पढ़िए आपको विश्वास हो जायेगा। मुझे तो वो खुद ही भूत लग रहा था ,भूत से भूतिया किताब लूँ पूरे शरीर में एक सिहरन सी हो गयी। ना लिया तो पता नहीं क्या होगा सोच मैंने पुछा कितने का है ,सिर्फ ५००/ . मैंने बिना हीलहुज्जत के दाम दिए ,तभी अपनी बड़ी सी ऊँगली आगे कर बोला अंतिम पेज भूल कर भी पहले मत पढ़ना।
  मैंने किताब लिया और तेजी से दौड़ पड़ी ,कहीं चिपट न जाए भूत। घर जा कर कुछ देर बाद भूतिया एहसास कम हो गया तो पर्स से किताब निकाली। कैसी घटिया प्रिंटिंग और कलेवर है। उसकी चेतावनी याद आई अंतिम पेज अंत में पढ़ने वाली। सबसे पहले अंतिम पृष्ठ देखा ,एक छोटा सा स्टीकर था ,उखाड़ा लिखा था ५०/ मात्र।  



रविवार, 20 जुलाई 2014

नीयत और नियती

पिज़्ज़ा--
"पैसे पेड़ पर नहीं उगते बहादुर , अभी नहीं दे सकती मैं"|
बहादुर मुह लटकाये सोचने लगा कि अब बीबी के इलाज़ के पैसे कहाँ से लाए |
तभी बेटे की आवाज आई "क्या मम्मी आपने वेज पिज़्ज़ा मंगा दिया , आप भूल गयीं कि मैंने नान वेज पिज़्ज़ा के लिए कहा था | दूसरा आर्डर करदो ना प्लीज"|
ठीक है बेटा , बहादुर को बोल दो , लेता आएगा मार्केट से |( vinay ji )
बहादुर ने पांच सौ का note जेब में रख लिया और दुखी मन से बाजार चला गया ! बीमार पत्नी की शक्ल आँखों के सामने घूम रही थी !
एक बार सोचा ,कह दूंगा कहीं गिर गया ,पिट लूंगा थोड़ा ! पर दवा तो आएगी !
पैर केमिस्ट की दूकान की तरफ मुड़ गये ! दूकान दार से दवाई ली और पैसे दे दिए लेकिन दूकान से उतरा नहीं !
ऐ भाई ,नहीं चाहिए पैसे वापिस करो ! नाम भूल गए हैं दवाई का दुबारा आएंगे !



पिज़्ज़ा ( नीलेश की कहानी के आगे )

दवाई दुकान से बहादुर बिना दवाई लिए निकल तो गया पर उसके दिलो दिमाग पर भावनाओं का अंधड़ चलने लगा। मन विचलित हो तरंगित होने लगा,उद्वेलित आवेशित मन कभी ऊपर कभी नीचे होने लगा। अपने अस्तित्व पर उसे शर्म आने लगी कि बीमार पत्नी की दवाई लेने लायक भी वह नहीं है। सामाजिक असमानताओं ने उसके जमीर की नींव हिला दी। जेब में हाथ डाला तो नोट अभी भी कसमसा ही रहा था ठीक उसके नीयत और नियती की तरह। पिज़्ज़ा की दुकान तो दिख ही नहीं रही ,दिल कब हावी हो कदमो को घर के दरवाजे पर खड़ा कर दिया था। घर से आ रही थी सिर्फ मनहूस सन्नाटे की गूंज ,दिल बैठ गया। अंदर गरम चाय की जगह बीवी की ठंडी लाश थी प्रतीक्षारत। तभी फोन की जन्नाटेदार चीखों ने उसकी तन्द्रा भंग की ,मेमसाब थी। फोन से अनवरत तोहमतें और लानते बईमान -धोखेबाज ,चोर की शक्लों में शब्द पूरे कमरे को अपने आरोपों से घेर रहीं थीं। बहादुर की आँखों से बेबसी ,दुःख ,ग्लानि अनवरत बिन मौसम बरसात कर रही थी। जेब में पड़ा नोट अपनी सच्चाई और ईमानदारी की दलीले देने को गला फाड़ रहा था। हमेशा की तरह उसकी आवाज कोई नहीं सुन रहा था। 












शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

आत्म-समर्पण पर पुलिस को बयान,नारी सशक्तिकरण


मेरा नाम माधुरी है ,मैं झारखण्ड के लोहरदगा की रहने वाली हूँ। हमारे यहाँ विकास की रौशनी अभी तक बहुत धीमी है. हमारे यहां रूसी क्रांति से प्रेरित नक्सलवादी विचारधारा के बहुत सारे युवक हैं। नक्सलवाद के समर्थक मानते हैं कि प्रजातंत्र के विफल होने के कारण नक्सली आंदोलन का जन्म हुआ और मजबूर होकर लोगों ने हथियार उठाए। कोई छह साल पहले एक रात मुझे घर से इनलोगो ने उठा लिया , मेरा भाई भी इस संगठन से जुड़ा रहा था,जिसकी पुलिस मुठभेड़ में जान गयी। मुझे और दल की कुछ  और लड़कियों को   सशस्त्र लड़ाई और गुरिल्ला तकनीकियों की कठिन ट्रेनिंग दी गयी। उनका व्यवहार हमारे प्रति सौहार्द पूर्ण ही था। हमने पुलिस मुठभेड़ में हिस्सा लिया ,मैंने दो पुलिस वाले को कौशल पूर्वक ढेर किया। उसदिन पहली बार हमने अपने नक्सली कमांडर अक्षय को देखा ,जिस शोषण के खिलाफ मैंने हथियार उठाया था वह वहां भी सुरसा की मूँह बाए था। अक्षय की शानो शौकत रहन सहन दिल्ली के नेताओं को मात दे रहें थे। मदांध कमांडर और ग्रुप के अन्य नेताओं ने हमारे आबरू को तार तार कर दिया ,गहन सघन वन में चीत्कार लौट के हमारे ही कानों में गूँज रहें थे। 
 अगली भोर हम कुछ महिलाएं अपने हथियारों के साथ चुपके से निकल पड़े उस ओर जिधर से जिंदगी की करतल ध्वनित हो रही थी। ओह ! आज करमा है,हम आदिवासियों का बड़ा त्यौहार। लडकियां लाल पाड़ की सफ़ेद साड़ी पहन ,माथे में करम डार की टहनी खोंसे झूमर पाड़ रहीं थी। हड़िया की खुशबु से पूरा वातावरण तर था। पांव ठिठक गएँ और मन पुराने दिनों में अटक। अचानक मोहभंग हो गया कि हम किस राह पर चल दिए हैं ,सच कहती हूँ बाबू मरे भाई की सौं मैं सीधी आपके पास थाने चली आई हूँ। हथियारों सहित आत्मसमर्पण करने।  



नारी सशक्तिकरण 
उस आदिवासी बहुल इलाके में अपने प्रवास के दौरान हर काम में महिलाओं की अधिक भागीदारी ने मुझे वास्तविक नारी सशक्तिकरण पर एक आलेख तैयार करने पर मजबूर कर दिया। हर कार्यस्थल में महिलायें ही महिलाएं ,वाह! यहाँ पुरुष जरूर घरेलू कार्यों में बढ़-चढ़ हिस्सेदार होंगे। यही देखने शाम को मैं उनकी बस्ती में चला गया। वहाँ "नारी बेचारीकरण" का जबरदस्त दृश्य ने मुझे आलेख का शीर्षक बदलने पर मजबूर कर दिया।


शनिवार, 5 जुलाई 2014

स्पंदन

इतवार की एक उदास सी पीली बेरौनक संध्या थी ,छत पर मैं घर लौटते नभचरों को देख रही थी। एक बड़ा सा खग दल बिलकुल समीप से गुजर गया ,उनकी कलरव, घर लौटने की बेसब्री मेरे खालीपन को झंकृत कर गया। इच्छा हुई समेट लूँ इन्हे बाँहो में ,अपनी अतृप्त मातृत्व को सुरभोग करा लूँ। परन्तु सभी अपने घोसलों में जाने को उत्सुक थे। सब उड़ गए पिंकू,बबली और गोलू। बचपन में सब उसकी दुपट्टा पकड़ आगे-पीछे होते थे ,उनके सपनो को अपने नयनो में इतना समेट रखा था कि स्वयं का कोई वर्तमान और भविष्य इन दृगों में आश्रय ना पा सका। जब सगर्भा ने उलट कर ना देखा तो सहचर साथी से क्या उम्मीद। सारी सहेलियां वर्षों पहले अपने निलयों को उड़ चुकीं थी। नभ पर वीरानी और कालिमा का साम्राज्य छाने लगा था। चलूँ अम्मा को देखने डॉक्टर साहब आते ही होंगे। तभी दर्पण पर नजर पड़ गयी ,जुल्फों को ऊँगली से संवार मुस्कराहट की लाली होंठो पर लगा की। शर्म पाऊडर बन गालों पर बिखर गया,उनकी आहट ने सर्वांग में नवयौवन सी चपलता ला दी। वर्षों से ये ही कुछ पल होते हैं जब शापित पाषाण में जीवन संचार होता है।
वो माँ की नब्ज देख रहे थें ,आज उनकी माता जी भी साथ थी। लाली ,पावडर स्वयं उसको काठ मार गया। वो मेरी तरफ क्यों आ रहीं हैं ?बेटी,आज मैं अपने देवदत्त की प्रतिज्ञा समक्ष हार गयी ,मेरी बहू बन जाओ। पिता जी के असमय मृत्यु के बाद पक्षाघात से बिस्तर पर पड़ी माँ के नयनों से जलधार बह निकले। पहली बार जीवन का स्पंदन हुआ।






मंगलवार, 1 जुलाई 2014

सफर रेलगाड़ी की - लघु कथाएं

पिछले दिनों मुझे ट्रेन से एक लम्बी यात्रा करनी पड़ी। मेरे सामने वाले चार बर्थ पर एक परिवार था। दो बच्चे ६ साल और दस के होंगे ,दिन भर बच्चों की धमा चौकड़ी से मन लगा रहा। शाम होते होते बच्चो को उन्होंने डाँट -डपट ऊपर के बर्थ पर बैठा दिया। खुद दोनों आपस में मशगूल हो गए ,अनायास वे बिलकुल अंतरंग हो गए। बोगी में उजाला था ,बच्चे सीट पर जगे ही हुए थे। आस -पास हम जैसे सहयात्री भी दीदे फाड़े हुए ही थे। युगल दम्पति इतने लीन अवस्था में थे कि सबकी उपस्तिथि गौण हो चुकी थी। कितना भी नजर उलटी दिशा में रखूं ,एक हाथ की दूरी बिना चश्मे की भी रील चला ही रही थी। बड़ी ही अटपटी सी स्तिथि हो गयी थी।
कौन कहता है देश में तरक्की धीमी गति से हुई है ,पश्चिमी सभ्यता का विकास साफ़ साफ़ मोटे अक्षरों में उसदिन बोगी में नजर आई। हम ही थोड़े सुस्त रहें जो आज भी उम्र अनुसार अनजान महिलाओं को भी दीदी /माता जी /आंटी या पुरूषों को भैया/अंकल जी इत्यादि सुनने/समझने के आदी बने हुएं हैं।






रात भर का ट्रेन से सफर था ,एसी बोगी के एक कूपे में दो लडकियां चढ़ी और एक अंकल जी। अंकल जी ट्रेन चलते ही खर्राटे लेने लगे। तभी एक लड़का दूसरी   बोगी से आया ,एक लड़की चली गयी (शायद दुसरे बोगी में ). दोनों की अंतरंगता और घनिष्टता सामाजिक नियमो /वर्जनाओं को तोड़ती रही। हम जैसे  और मुसाफिरों ने असहजता से रात गुजारी। सुबह नींद खुली दोनों संयत से बैठे हुए थे और अंकल जी इंटरव्यू ले रहे थे। अच्छा तो हॉस्टल से घर जा रही हो ,ओह तो ये तुम्हारा भाई होगा। अच्छा किया बेटा बहन को लेने चले आये ,जमाना बहुत खराब है। रात भर का हमारा मनोरंजन अब टर्निंग पॉइंट ले रहा था और तथाकथित भाई - बहन चेहरा देखने लायक बन रहा था। 





यूं ही चलते चलते 
रेलगाड़ी में लोग फुरसत से बैठ अपने सहयात्री से खूब ज्ञान बघारते दीखते हैं। राजनीती हो ,देश की ताज़ा हालत हो ,नेताओ के कारनामे किसी भी टॉपिक पर बहस या भाषण देते महानुभाव मिलते हैं। देश और रेल को तो गाली देना प्रिय शगल होता है। चाय पी पेपर कप को नीचे लुढ़काते और मूंगफली छीलते हुए ,फूँक कर उसके छिलके को उड़ाते जब कोई रेल विभाग की ऐसी तैसी करता है तो पता नहीं क्यों हज़म नहीं होता है। कुछ देर पहले खरीदा हुआ अखबार मुझसे मांग कर पढ़ने की थोड़ी एक्टिंग करने के पश्चात जमीन पर बिछा दिया जाता है ,पानी सोखने के लिए जो उन्होंने ही गिराया है। गरियाते हुए ज्ञानी जी बोलेंगे कि हालत देखी है टॉयलेट की ,जितनी गंदगी है। मन होता है बोले आपने तो यहीं टॉयलेट बना दिया है। कोई बुड्ढी महिला जिन्हे लोअर बर्थ नहीं मिल पायी है गिड़गिड़ाती है पर उस समय रूल की बात करने लगेंगे या इधर उधर देखने लगेंगे। वहीं किसी दूसरी महिला सहयात्री को वो भी यदि अकेली सफर कर रही हो तो उसका गॉड फादर बन जाना उनका कर्तव्य ही हो जाता है। कोई कोई परिवार तो मानो रेल में खाने के लिए ही यात्रा कर रहा होता। ये बड़े बड़े टिफ़िन के डिब्बे खुलने लगते हैं और बकायदा फैल पसर इत्मीनान से बुफे करते हैं। वहीँ कोई ऐसा भी होता जिसे हर फेरी वाले के धंधे का ध्यान रखना होता है यानी सब से कुछ ना कुछ खरीदेंगे ही।
यूं ही चलते चलते सफर में कुछ याद रह जातें हैं बाकी रेल से उतरते ही अजनबी हो जातें हैं।