सोमवार, 24 मार्च 2014

लघु कथा -2 -फ़र्ज़ ,भेद भाव,सासू माँ बच के,चोरो को सारे नज़र आते हैं चोर, पखेरू ,खेतों में खर पतवार सी ,उग आती हैं बेटियां ,पोष्य पुत्र

फ़र्ज़
एक लघु  कथा



शर्मा जी को दिल का दौरा पड़ा था ,शहर के दुसरे छोड़ पर रहने वाली उनकी बेटी और  दामाद भागे भागे आयें। आई सी यू  से निकाल  जब उन्हें  केबिन में लाया गया ,तो सब से पहले उन्होंने अपने बेटों के बारें में पुछा कि उन्हें खबर कर दिया। अब बेटी क्या बोले कि दोनों भाइयों ने यही कहा कि बच गए न और तुम हो ही फिर हम क्यूँ इतनी दूर से आयें। सँभालते हुए बेटी ने कहा कि बोलती हूँ अब.………  सामने बेटी दामाद हैं पर मन बेटों में ही जा अटका ,बार बार पूछते और बेचैन रहते। क्या बोला ?कब आ आयेगा ?क्या पोते भी आयेंगे मुझे देखने ?दरवाजे की  ओर तकते रहते ,फोन की  घंटी पर कान लगाएं रहते। कोई आठ दस दिनों के बाद घर जाने  की  छुट्टी मिली। उसी दिन शाम तक दोनों भाई सपरिवार पहुँच गएँ और भरपूर सेवा में लग गएँ। होड़ ही लग गयी कि कौन अधिक सेवा करेगा ,हँसते हुए कहते ये तो हमारा फ़र्ज़ है। 
   बेटी तो बस पिता की आँखों की चमक और तेजी से ठीक होते देख संतुष्ट थी ,उन्हें क्या बोलती  कि उसने भाइयों से एक झूठी बात कहा है कि हॉस्पिटल से घर जा कर पिता जी  वसीयत लिखने की बात सोच रहें हैं। 



भेद भाव


उन्हें एक बेटा और एक बेटी थी। पालन पोषण में कभी कोई भेद भाव नहीं किया जैसा कि उस जमाने में चलता था। दोनों को पढ़ाया लिखाया ,ब्याह शादी किया। अपनी जायजाद से एक छोटा ही हिस्सा जीते जी बेटी को भी दिया। बुड्डे हुए लाचार हुए दोनों तो अकेले रहना मुश्किल होने लगा। बेटी ने दोनों को कहा कि अब वे उसके साथ रहें वह उनकी सेवा करनी चाहती है तो दोनों भड़क गए कि बेटी के घर ?ये कहाँ की रीत हुई ?बेटी के घर रह कर हम अपना परलोक नहीं बिगाड़ेंगे। क्या ये भेद भाव नहीं है ?


सासू माँ बच के

 नमिता जी के बेटे ने अपने साथ पढ़ने  वाली एक सांवली सलोनी मेघावी लड़की को पसंद कर लिया। वे उस को स्वीकार नहीं कर पा  रहीं थीं,पर बेटे की  जिद्द के आगे झुकना पड़ा।घर में सभी उसकी क़ाबलियत और आकर्षक व्यक्तित्व के कायल हो रहे थें। शादी का दिन नजदीक आ रहा था और उन्हें सपने में भी सांवले पोते - पोतियां दिख रहें थें। दिल से वे दूध सी गोरी बहू  की  चाहत रखती थी चाहे थोड़ी कम ही पढ़ी हो पर अब बोलें तो दकियानूसी कहा जाएगा। टीवी देखते हुए उन्हें एक उपाय सूझा ....... दूसरे दिन शाम को घर में बखेड़ा खड़ा था ,लड़की ने शादी से इंकार कर दिया था। अब नमिता जी को काटो तो खून नहीं ,सच वे ऐसा भी नहीं चाहती थी। सभी उनको ले होने वाली बहू के घर गए जहाँ उन्हें माफी मांगनी पड़ी कि बस यूं ही गोरे होने वाली क्रीम भेज दी थी।
नमिता जी के साथ पूरी सहानुभूति है। 




कि चोरो को सारे नज़र आते हैं चोर ..........

सरकारी महकमे में बड़े ऊंचे पद पर साहब हैं। ईमानदार की नज़रों से देखे तो बड़ा ही जिम्मेदारियों और संवेदनशील पद है ,पर साहब के लिए बस एक मलाईदार कुर्सी। जिसको कितने तिकड़म और चढ़ावा के बाद हासिल किया है। जाहिर है अपना खर्च तो निकालेंगे ही साथ ही साथ आगे की भी तो सोचनी है। आवंटित फण्ड को किस तरह वारे- न्यारे कर बंदर बाँट किया जाए साहब जी इसी जुगत में लगे रहते हैं। कृत्रिम मांग कैसे पैदा हो और किस तरह बिना कोई काम के सारी राशि हजम हो जाए इसके लिए दिमाग को कितना दही करना पड़ता है ,कैसे विभिन्न जाँच एजेंसियो से बच के रहा जाये। बेचारे बड़ी मेहनत करतें है साहब।
और मेम साहब लेडीज क्लब में नेताओं को घोटालों के लिए पानी पी पी कर कोसतीं है। सुबह सुबह दूध वाले से लड़तीं हैं कि बेईमान आज तुमने फिर पानी मिला दिया। सब्जी वाले से झिक झिक करते नहीं थकती कि वह दो रूपये महंगी धनिया क्यूँ बेच रहा है। घर के रामू काका को सौदा ले कर आने के बाद पैसे मार लेने का आरोप लगाती हैं। माली पर शक करतीं है कि उसने पेड़ पर लगे कुछ आमों को चुपके से पार कर लिया है।
.......कि चोरो को सारे नज़र आते हैं चोर.


प्रतियोगिता के लिये चित्र कथा 
पखेरू 
अभी तीन महिने पहले ही तो भैया अपने घर - अपने शहर को छोड़ कर उड़ीसा के इस अंदरुनी क्षेत्र मे भाभी सहित मयसमान शिफ़्ट हुए थे। अपने घर में ताला बन्द कर जब भाभी रवाना हो रही थी तो फूट फूट कर रोईं थी ,मानों मायके से विदा हो रही हो और पड़ोसियों को गले मिल खूब हिचकियाँ ली थी। अब नौकरी जो ना करवाऐ। पचास साल की उम्र मे उन्हे मानो घुन लग गया हो ,हमेशा चहकने वाली भाभी नए जगह पर घुमसुम रहतीं और धीरे धीरे व्यवस्थित होने की राह पर दिखतीं। भैया देखते कि कुछ छीजती जा रही है पर बेबस थे वही हाल तो उनका भी था. नए जगह मे सामंजस्य बैठाने मे वक़्त लगेगा ही। एक दिन भाभी को खट्टे डकार आने जो शुरु हुए सो खतम ही ना हो , स्थनीय ड़ॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिये तो भईया भुवनेश्वर ले गये ,जहाँ तरह तरह के जाँच के बाद जो रिपोर्ट आया वह था "कैंसर",भागे भागे भैया कोलकाता पहुंचें। खट्टी डकारों के बाद ब मुश्किल १०-१२ दिन गुजरे थे ,कैंसर वार्ड के कमरे से भैया ने आसमान की ओर देख कर सोचा धन्यवाद प्रभु,अब सही इलाज शुरु हुआ , बेटी को खबर करूँ कि माँ बीमार है आकर मिल ले । 
अचानक मानों आसमान का रँग बदलनें लगा , बादल सूरज को अपने आगोश मे लेने लगे। दूर कहीँ क़ोई धमाका हुआ था और ढ़ेर सारी चिड़ियाओं ने चौँक कर एक अज़ीब सी चीं चीं के चीखने साथ फड़फड़ाते हुए आसमान को ढांक लिया। खिड़की के बाहर तो दोनों साथ देख रहें थे अचानक तन्हा कैसे रह गया ,उन्होने सोचा ,प्राण पखेरू कब उङ गये ?



खेतों में खर पतवार सी ,उग आती हैं बेटियां 
(प्रतियोगिता के लिए )
मैंने ये पंक्ति कहीं पढ़ा था,इस चित्र को देख मुझे बरबस वही याद आ गया।
जमाना बदला है सोच बदली है फिर भी अभी भी बेटे - बेटी में भेद-भाव मौजूद है। प्रभा माँ बनने वाली थी ,ये एहसास उसे पुलकित किये जा रहा था। नन्हे शिशु की आहट उसकी मातृत्व भावना को बलवती किये जा रही थी। ख़्वाबों में अपने बच्चे की तस्वीर को बनाती रहती ,किस के जैसा होगा मेरे जैसा कि अनूप की तरह। कहीं अपनी दादी पर चल जाए तोओओओ !!!! उसकी हंसी छूट जाती।
दफ्तर से लौट कर अभी वह बस आराम करना चाहती थी और होने वाले बच्चे की सतरंगी ख्यालों में खोये रहना चाहती थी ,तभी अनूप भी आ ही गया। आते उसने कहा,प्रभा आज माँ का फोन आया था बोल रही थी हमें ये पता करवाना चाहिए कि कहीं लड़की तो नहीं होने वाली है ,बेकार नहीं तो फँस जायेंगे।
प्रभा यादों के गोते लगाने लगी,वह पांच बहन थीं और एक भाई. उसे याद हो आया कि जब भाई हुआ था तो पिता जी ने कहा कि तेरे लिए मुझे इतनी लम्बी बेकार की लाइन लगानी पड़ी ,तू पहले क्यों नहीं आया। रोपे जाते हैं बेटे ,खर पतवार सी उग आतीं हैं बेटियां।
उसी भीड़ भाड़ और भेद भाव के बीच राह बनाती प्रभा ने जिंदगी की सभी रुकावटों को पार किया था। बहनो के साथ उसने राह की तकलीफो को नजर अंदाज़ कर ऊँचे आसमान में अपने स्वप्न बुने थे।आत्म विश्वास से लबरेज प्रभा ने अनूप की उस बेकार सी बात को कोई तवज्जो नहीं दिया और सोचने लगी कि क्या खाँऊ कि मेरा बच्चा स्वस्थ हो। 



तुमने वह सुन लिया जो मैंने नहीं कहा

पति कमरे  के दराज में कुछ ढूंढ रहा था ,पत्नी ने पुछा कि क्या खोज रहे हो तो कुछ कहा नहीं। फिर पत्नी बोली जो ढूंढ रहे हो वो वहाँ नहीं रसोई के अलमारी  में है। और सच वहां मिल भी गयी। इसे कहतें हैं बुढ़ापे का प्यार और सामंजस्य। 




भेदभाव 
शाम के सात बज रहें थे कि अचानक रश्मि को याद आया कि उसे मीरा से आवश्यक नोट्स और एक किताब लेनी है। उसने माँ को कहा की वह तुरंत आती है ,अभी रिक्शा भी मिल जाएगी। ना बेटा,जमाना बड़ा खराब है देख रही हो लड़के क्या क्या कर गुजर रहें हैं ,कल कॉलेज में ले लेना। रात के नौ -सवा नौ बजे रश्मि के भाई रमेश ने कहा कि शाम से कहीं निकला नहीं हूँ जरा एक चक्कर लगाने निकलता हूँ और बाइक ले निकल गया। 

  क्या माँ उसे नहीं बोल सकती थी कि ना जाने तुम क्या करने की नियत से जा रहे हो ,क्या क्या कर गुजरोगे ? मत जाओ  



आम भारतीय घरों में लड़कियों को बचपन से और सब कॉमन बातों के अलावा कुछ खास बाते भी सिखाई जाती है ,मसलन इस समाज में उसे कैसे रहना चाहिए,कपडे कैसे हो ,बोलना कैसे चाहिए ,अजनबियों से कैसे मिले क्या बोले कब बोले। …। लिस्ट बड़ी लम्बी है जिन्हे संस्कारों के नाम पर घुट्टी में पिलाई जाती है। जबकि सच बोले तो परेशानी लड़कियों से नहीं लड़को और मर्दों से अधिक है समाज को। तो क्या माताओं का ये फर्ज नहीं है कि वह अपने राजदुलारों को भी कुछ संस्कार सिखाएं। समाज में  कैसे रहा जाता है,औरतों और लड़कियों के प्रति कैसी भावना होनी चाहिए बताएं बचपन से घुट्टी में।





अवकाश प्राप्ति के बाद मैं अपने गांव में रहने लगा था। वहाँ की खुली आबो हवा  और पुराने दोस्तों के बीच हम दोनों प्रसन्नता से जीवन बिताने लगे। तभी बेटे की पोस्टिंग नोएडा हो गयी। उसने एक बहुमंजिले इमारत के दसवें माले पर किराये पर फ्लैट लिया हुआ था। पोते की जन्म के वक़्त  हमदोनों वहाँ गएँ पर हालात कुछ ऐसे होते गए कि फिर गांव का सुख नसीब ही नहीं हुआ। बच्चे को जन्म से ही कुछ सांस की बड़ी बीमारी थी ,जिसका कारण डॉक्टर ने आबो हवा में फैली विषाणु और प्रदूषण बताया। बहू और बच्चे की देखभाल के लिए हम रूकते चले गएँ ,पर फ्लैट में एक कमरे में जिंदगी मानो सिमट सी गयी  मैं तो फिर भी निकल जाता पर मेरी पत्नी बीमार पोते और घर में ही उलझी रह जाती। हमेशा स्वस्थ रहने वाली पत्नी अब आये दिन बीमार रहने लगी। पिछले दिनों उसके हार्ट का बड़ा ऑपरेशन भी हुआ। अब तो हॉस्पिटल के चक्करों में गांव लौटना संभव नहीं था। इस बीच मैं ने  अपनी गांव की जमीन बेच दी ,कुछ बेटे ने लोन ली और हमने शहर के खुले इलाके में ,जहां व्यवस्थित रूप से पार्क ,फूल पौधे ,पेड़,और टहलने की जगह थी,एक बड़ा सा फ्लैट खरीद लिया। बड़े पोते को अब खेलने की जगह मिली,उसके स्वास्थ्य में सुधार होने लगी। हर दिन हम दोनों टहलने वाले कपड़ों में खूब खुली हवा में सैर करते हैं। बहू के पैर फिर भारी है हम उम्मीद करते हैं इस स्वस्थ आबो हवा में एक स्वस्थ बच्चे का जन्म होगा। 



गुमशुदा 
(प्रतियोगिता के लिए )
झारखण्ड के गुमला जिले के देहात में मेरा परिवार रहता है।  निसा दीदी ,मैं ,भाई ,बाबा और माँ हमारा परिवार था,थोड़ी सी खेतीबाड़ी थी गुजर बसर हो ही जाती थी। परस्पर सहभागिता से गृहस्थी की गाडी चल रही थी। गांव की हर बड़ी बहन की तरह दीदी मुझे भी पिठैया ली रहती थी। वैसे मेरे जितने  बच्चे खुद चलने लगते थे पर पोलियो के कारण मेरे पैर कमजोर थे सो दीदी या माँ मुझे पिठैया ही रखती थीं। उन्ही दिनों दिल्ली में रहने वाले साधु काका घर पर आएं। जाने क्या खुसुर फुसुर हुई ,पता चला दीदी दिल्ली जाने वालीं हैं। गांव की और भी आठ लडकियां जा रहीं थीं। घर में सभी बहुत खुश थे ,इसके पहले भी कई लडकियां दिल्ली गयीं थी और उनके भेजे पैसों से घर में खुशहाली आई थी। जाने वाले दिन टेम्पो आ गया था सभी लड़कियों सहित दीदी भी जाने लगी पर मुझे गमछे से बांधे जिद्द करने लगीं की मैं मनीसा को भी ले के जाउंगी और दिल्ली में इलाज करवाउंगी। उसी वक़्त गंजू मामा ने एक तस्वीर उतारी थी। 
     नियत वक़्त पर पैसे आते रहें और घर में खुशहाली। मेरा भी इलाज होने लगा। मैं रांची में रह कर,एक मिशनरी स्कूल में , अच्छी पढ़ाई कर रहीं हूँ।  कोई ९-१० वर्ष हो गए हैं ,खुशहाली तो आई पर नहीं आई तो"दीदी"। माँ दिन के किसी वक़्त रो कर एक औपचारिकता सी पूरी करती है। दो वर्ष से तो पैसे भी आने बंद हैं। अब मैं "बच्चो के अवैध व्यापार" का मतलब समझती हूँ। दिल्ली गयी कोई लड़की वापस नहीं आई पर जाने का सिलसिला बद्दस्तूर जारी है। सोशल साइट पर दीदी की फोटो पोस्ट करने का मेरा यही उद्देश्य है कि किसी तरह अपनी अन्नपूर्णा सी दीदी को खोज सकूँ। सक्षम और बड़ी होने पर मैं दिल्ली जरूर जाउंगी और उस आदमखोर भीड़ में अपनी निसा दीदी को तलाशूंगी जिसने उसे निगल लिया। 





पोष्य पुत्र

पोष्य पुत्र
( प्रतियोगिता हेतु )
इस नए स्थान पर आये बस चंद दिन ही हुए हैं ,आज शाम अगल बगल के कुछ लोग मिलने आये थे। नयी पड़ोसन ने प्यार से बेटे के गाल को सहलाते हुए मेरे पति को कहा,"बिलकुल आप पर गया है ". दूसरी ने भी हाँ में हाँ मिलाया सही बिलकुल एक सी रूप रंग है। मैं अन्मयस्क होने लगी ,मेरे चेहरे पर हवाइयां सी उड़ने लगी। मुझे परेशान होता देख वो लोग पडोसी धर्म निभा चले गएँ। मुझे फिर से दौरे आने लगे। अनीश मुझे सँभालते हुए बोले "क्या तुम उस घटना को एक बुरा स्वप्न मान भूल नहीं सकती हो? ये एक औपचारिकता है बच्चे को माँ या पिता से मिलान करना ". मैं तड़प उठी,"ये तो उन वहशियों का एक अंश है ,कैसे हो सकता है तुम जैसा ?" हमेशा की तरह अनीश ने फिर मुझे संभाला और कहा,"ये बलात्कारियों का नहीं अब मेरा बेटा है और मैं इसे एक अच्छा इंसान बनाऊंगा। इस नए जगह पर हम जिंदगी की नयी इबादत रचेंगे ". ऐसा कहते हुए वो बेटे को ले टहलने निकल पड़े। मैं उन्हें देखती रह गयी ,एक सी मुद्रा एक सी हाव -भाव। सच ! ये अनीश का ही पुत्र है।






रविवार, 23 मार्च 2014

सुख समंदर



अनंत व्योम अर्श से आगंतुक
जलधि ,
किनारों से मिलने की हसरत में
शताब्दियों से आते हैं बारम्बार
दौड़ते भागते उछलते  बार बार
मिलते हैं ,
प्यार यहीं छोड़ लहरें लौट जातीं हैं।
 

लहरों का किनारों से नाता है गहरा
सहस्त्र हस्तों से थाम प्यार सारा
अम्बु दल उलीच देती है
सुख सौभाग्य ढेर सारा।
असीम वरुणालय
करुणा आपार
अथक निहारे मन नयन।

जो कहना है कह दो
जो मांगना हो मांगो
देता है जलधि सबको
मनचाहा मन भाता
दोनों बाजुओं को फैलाकर
भर दो जीवन रत्नाकर       

गुरुवार, 20 मार्च 2014

"एक पन्ना डायरी का"

२०  मई १९८३

आज मन बहुत ज्यादा ही उदास है। पिछले ३  दिनों में कितना कुछ बदल गया है। मैं अपनी क्लास में सर्वदा प्रथम या द्वितीय आती रहीं हूँ। शायद इसीलिए मुझे घर में पढ़ने भी  दिया गया अभी तक। दादी  का बस चला होता तो मैट्रिक के बाद मैं भी दीदी की तरह अपने ससुराल में होती। कितनी मुश्किल से मैंने विज्ञानं के लिए पिता जी को राजी किया,रात दिन एक कर पढाई  करती रही। घर में लड़कियों वाले सारे धर्म निभा कर ही मैं कॉलेज जा पाती।एक नया सपना पलने लगा कि डॉक्टर बन जाऊँ। उस दिशा में मैं कमर कस मेहनत करने लगी ,अपनी पुस्तकों को मैंने अपना साथी बना रात  दिन लगी रही अपनी मंजिल पाने को।पर १७ मई के अखबार में जब पीएमटी के रिजल्ट निकला तो मेरा नाम नदारद था।मैं पागलों की तरह दौड़ती हुई दूसरों के रिजल्ट पूछने लगी ,पर ज्यादातर वहीँ लोग सफल हुए हैं जिन्होंने इसकी विशेष कोचिंग किया था।  मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा कि मैं असफल हो चुकी हूँ। मेरा डॉक्टर बनने का सपना अधूरा ही रह जायेगा। मेरी सहेली रूपा का चयन हो गया है ,मैंने उसे कितना मदद किया था तैयारी  के दौरान।लग रहा है जमीन फट जाये और मैं उसमें समा जाऊं। अपना असफल चेहरा छुपा कर मैं किधर जाऊं ?दादी तो बस ऐसे देख रहीं हैं मानो उन्हें तो पता ही था कि मैं असफल रहूंगी। पिता  जी भी ने कोई खास सहानुभूति नहीं जताया बल्कि कहा कि देखो जरा रूपा को अब वह डॉक्टर बन जायेगी। माँ तुम क्यूँ चली गयी मुझे छोड़ कर ,आज तुम्हारी कितनी याद आ रही है। तुम होती तो आज तुम्हारी गोदी में मैं अपना चेहरा छुपा लेती। तुम होती तो शायद अपने आँचल से मेरे आंसुओं को पोंछ डालती।तीन दिनों से मैंने कुछ  खाया नहीं है। मैं असफल हो गयी मैं असफल हो गयी ………
 पिछले चार घंटो से मैं इस कुँए के मुंडेर पर बैठी सोच रहीं हूँ कि क्या मेरे जीवन का अब कोई मोल बचा है ?मैं कितनी नालायक हूँ ,मुर्ख और बेवकूफ हूँ। मेरी सारी  मेहनत पानी में चली गयी। अब तो दादी और पिता जी मेरी शादी करवा कर ही छोड़ेंगे। मेरा मर जाना ही बेहतर है। कैसे मरुँ ?फांसी  लगा लूँ कि कुँए में कूद जाऊं ?पर कहीं हड्डी पसली टूटने के बाद बच गयी तो ,तब तो जीना और दुश्वार हो जायेगा। क्या करूँ ?

२१ मई १९८४

आज का दिन मेरे जीवन का सबसे अच्छा दिन है। आज पीएमटी का रिजल्ट निकला और मैं सफल रही ,सिर्फ सफल ही नहीं रही बल्कि राज्य में मेरा १० वां स्थान भी रहा। अब मैं राज्य के टॉप मेडिकल कॉलेज में पढ़ कर डॉक्टर बनूँगी।
एक साल से मैंने डायरी नहीं लिखा था। पिछले साल कुँए के मुंडेर से लौटने के बाद मैंने इसे हाथ भी नहीं लगाया था। डायरी लिखने का मेरे पास वक़्त ही कहाँ था ?मैं जो दोबारा कमर कस तैयारियों में जुट गयी थी। सच ! यदि पिछले साल मैं कुछ ऐसा वैसा कर बैठती तो ये दिन देखने को नहीं मिलती। दादी सुबह से बावरी हो मंदिरों में माथा टेक रहीं हैं और पिता जी तो मिठाइयां बांटे जा रहें है। मेरी मेहनत आख़िरकार रंग लायी।








महँगी से महँगी घड़ी पहन कर देख ली,
वक़्त फिर भी मेरे हिसाब से
कभी ना चला ...!!"

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युं ही हम दिल को साफ़ रखा करते थे ..
पता नही था की, 'किमत चेहरों की होती है!!'
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अगर खुदा नहीं हे तो उसका ज़िक्र क्यों ??
और अगर खुदा हे तो फिर फिक्र क्यों ???
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"दो बातें इंसान को अपनों से दूर कर देती हैं,
एक उसका 'अहम' और दूसरा उसका 'वहम'......
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" पैसे से सुख कभी खरीदा नहीं जाता और दुःख का
कोई खरीदार नहीं होता।"
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मुझे जिंदगी का इतना तजुर्बा तो नहीं,
पर सुना है सादगी मे लोग जीने नहीं देते।

शनिवार, 8 मार्च 2014

चित्र  कथा प्रतियोगिता



कोयला खदान 


छत्तीसगढ़ की धरती बड़ी ही समृद्ध है। एक तरफ तो घने जंगलों की सघनता तो दूसरी तरफ गर्भ में काला हीरा कोयले की प्रचुरता। पारो अपने पति और कुछ अन्य लोगो के साथ बांसवाड़ा ,राजस्थान से कोरबा  काम करने कुछ ३-४ साल पहले आयी थी। पहले वह भी काम करती थी पर एक बच्चा हो जाने के बाद वह मजदूरी छोड़ घर सँभालने लगी। अक्सर मन नहीं लगने पर वह बच्चे को गोदी में ले कर खदान में आ जाती और एक तरफ ढेरी पर बैठ काम करती औरतों से बतियाती। खदान में कोयले की निकासी के चलते काली धूल उड़ती रहती ,बड़े बड़े डोजर डम्फर चलते तो नीला आसमान काला हो जाता। धरती के अत्यधिक दोहन से पर्यावरण की सारी व्य़ाख्या यहाँ दम तोड़े रहती है। आज पारो पूरी सज धज के साथ आयी थी ,गले में सोने की पानी चढ़ी माला ,पैरो में पायल ,नयी लाल चूड़ियाँ ,गहरे बैगनी लहगा और होठों पर लाली भी थी। सोचा था पति काम कर ख़तम कर ले तो कोरबा सिनेमा देखने जाउंगी। कोई पेड़ -छावं तो था नहीं गमछी से ही छाया कर रही थी तभी खदान में दूर कहीं ब्लास्टिंग कर कोयला तोडा गया और धूल की आंधी ऐसी चली कि लगा पारो का काजल सर्वस्य फैल गया। उसने मोबाइल से अपने पति को रिंग किया , तभी उसने जो देखा वह खदान की आम घटना थी, उसका पति एक विशालकाय डम्फर के भीमकाय चक्कों तले पिस कर पापड़ हो चुका था। धूल इतनी घनेरी थी कि पास आ गयी डम्फर उसे दिखाई नहीं दिया और ब्लास्टिंग के शोर में सुनाई भी नहीं दिया। बस एक हाथ बाहर था और  मुठ्ठी में मोबाइल बजे जा रहा था 



प्रतियोगिता के लिए कहानी 
नोंक -झोँक 
उफ़ ! कब बंद होगी इसकी बकवास ?अभी सूरज का नामो निशान नहीं हैं पर इसकी चहचहाट शुरू हो गयी। दिन भर फिर उड़ते भटकते ही कट जाता है। जरा देर तक सोने भी नहीं देती है। अरे जाओ न अकेले ,एक दिन मैं सोता ही रहूँगा तो क्या हो जायेगा। कितनी शोर मचा रही है,पता नहीं कैसे शादी के पहले यही आवाज मुझे रस घोलती सी प्रतीत होती थी। पडोसी जोड़ा अभी तक सोया पड़ा है एक ये है कि बस ....... आलसी चिड़ा झूठी मूठी आँखे मूंदे सोच रहा था।मेरी तो किस्मत ही फूट गयी। 
चिड़िया बोले जा रही थी ,अरे धूप की गर्मी बढ़ने से पहले चलो हम दाना चुग आये,चिलचिलाती धूप में उड़ान मुश्किल होगी। बरसात आने वाली है ,मैं अंडे देने वाली हूँ। हमें कुछ भविष्य के लिए भी बचाना होगा। जाने कैसे पहले मेरे आगे पीछे फुर्ती से हुआ करता था?अब तो पडोसी घोसलें वाले की तरह दिन चढ़े पड़ा रहता है। महारानी जी कल मुझ से मांग कर ले गयी थीं दाना।मैं गला हकलान किये हुई हूँ और इनके कानों पर जूँ नहीं रेंग रही है। उफ़ मेरी तो किस्मत ही फूट गयी।