आज जब श्रीमान केजरी बाबू को अचानक बड़े दफ्तर से एक अति विशिष्ठ पद के लिए नियुक्ति पत्र प्राप्त हुआ तो दफ्तर में सबकी कालेजों पर सांप लोट गए। असल में उनका नाम कृष्णकांत है पर उनकी ईमानदारी और आदर्श भरी बातों के चलते लोग केजरीबाबू बोलने लगे थें जिसमे एक विद्रूप व्यंग्य रहता था। सीमा पर शहीद होनेवाले जवानो को सबसे बड़ा देशभक्त कहा जाता है पर हर दिन इस सड़ी गली कामचोर भ्रष्ट लोगो के बीच अपनी ईमान को बिकने से बचा लेना भी कोई कम बहादुरी नहीं है। उन बेईमान गलीज लोगो की धमकियों और विभिन्न प्रकार की दबाव के समक्ष घुटने न टेकना भी बहुत बड़ी देशभक्ति है। वो सब एक हो गोलबंद हो गलत को सही करने में लगे थे ,कृष्णकांत जी अकेले जूझते रहे पर झुके नहीं। अंत में विभाग से तबादले के ब्रह्मास्त्र से उनके बुलंद विचारों को नेस्तनाबूद करने की कोशिश हुई। दफ्तर में सबसे किनारे कोने वाले अपने कमरे में मानों वे कोई देशनिकाला झेल रहें थे। एक कटपुतली को उनकी जगह बैठा ईमान और नियमो की बोटियाँ नोच ली गयीं। उनका हटना वर्जनाओं का धराशाही होना था,भ्रष्टाचारियों की जश्न और हौसले मानो आसमान छेद देंगी।
कृष्णकांत जी ने सत्य के इस वनवास को बहुत सहजता से लिया। उन्हें ये भान था कि ऐसा कुछ होगा ही। पांडवों की तरह वनवास की अवधि को उन्होंने अपने अभ्युदय और ज्ञान विकास में सदुपयोग किया। कोई कितनी होशियारी कर ले चोरी का भंडाफोड़ तो होता ही है। कुछ चतुर सयाने बच निकले ,कुछ छोटी मछलियां पकड़ी भी गयीं। पर ये तो बिना अपराध सजा भुगतते रहें। तीखी नजरें उन्हें ऐसा हेय दृष्टि से तकती मानों ईमानदारी की सजा तो भुगनी ही है। इस आड़े विषम वक़्त में पत्नी और बच्चों ने खूब हौसला बढ़ाये रखा आखिर उनके ही संस्कार थे। बिना किसी चाहत के बिना बोले अपने कर्मों से अपने आदर्शो को अक्षुण रखा,जिसका उन्हें चैन रहा।
आज जब बड़े दफ्तर से उनके लिए विशेष नियुक्ति पत्र आया तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि क्या ईमानदारी और साफ नियत को सभी अजूबा नहीं समझते हैं। विवेकानंद की बात कि सत्य परेशान हो सकता है पराजित नहीं -पर विश्वास हो गया।
कृष्णकांत जी ने सत्य के इस वनवास को बहुत सहजता से लिया। उन्हें ये भान था कि ऐसा कुछ होगा ही। पांडवों की तरह वनवास की अवधि को उन्होंने अपने अभ्युदय और ज्ञान विकास में सदुपयोग किया। कोई कितनी होशियारी कर ले चोरी का भंडाफोड़ तो होता ही है। कुछ चतुर सयाने बच निकले ,कुछ छोटी मछलियां पकड़ी भी गयीं। पर ये तो बिना अपराध सजा भुगतते रहें। तीखी नजरें उन्हें ऐसा हेय दृष्टि से तकती मानों ईमानदारी की सजा तो भुगनी ही है। इस आड़े विषम वक़्त में पत्नी और बच्चों ने खूब हौसला बढ़ाये रखा आखिर उनके ही संस्कार थे। बिना किसी चाहत के बिना बोले अपने कर्मों से अपने आदर्शो को अक्षुण रखा,जिसका उन्हें चैन रहा।
आज जब बड़े दफ्तर से उनके लिए विशेष नियुक्ति पत्र आया तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि क्या ईमानदारी और साफ नियत को सभी अजूबा नहीं समझते हैं। विवेकानंद की बात कि सत्य परेशान हो सकता है पराजित नहीं -पर विश्वास हो गया।
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