शनिवार, 5 जुलाई 2014

स्पंदन

इतवार की एक उदास सी पीली बेरौनक संध्या थी ,छत पर मैं घर लौटते नभचरों को देख रही थी। एक बड़ा सा खग दल बिलकुल समीप से गुजर गया ,उनकी कलरव, घर लौटने की बेसब्री मेरे खालीपन को झंकृत कर गया। इच्छा हुई समेट लूँ इन्हे बाँहो में ,अपनी अतृप्त मातृत्व को सुरभोग करा लूँ। परन्तु सभी अपने घोसलों में जाने को उत्सुक थे। सब उड़ गए पिंकू,बबली और गोलू। बचपन में सब उसकी दुपट्टा पकड़ आगे-पीछे होते थे ,उनके सपनो को अपने नयनो में इतना समेट रखा था कि स्वयं का कोई वर्तमान और भविष्य इन दृगों में आश्रय ना पा सका। जब सगर्भा ने उलट कर ना देखा तो सहचर साथी से क्या उम्मीद। सारी सहेलियां वर्षों पहले अपने निलयों को उड़ चुकीं थी। नभ पर वीरानी और कालिमा का साम्राज्य छाने लगा था। चलूँ अम्मा को देखने डॉक्टर साहब आते ही होंगे। तभी दर्पण पर नजर पड़ गयी ,जुल्फों को ऊँगली से संवार मुस्कराहट की लाली होंठो पर लगा की। शर्म पाऊडर बन गालों पर बिखर गया,उनकी आहट ने सर्वांग में नवयौवन सी चपलता ला दी। वर्षों से ये ही कुछ पल होते हैं जब शापित पाषाण में जीवन संचार होता है।
वो माँ की नब्ज देख रहे थें ,आज उनकी माता जी भी साथ थी। लाली ,पावडर स्वयं उसको काठ मार गया। वो मेरी तरफ क्यों आ रहीं हैं ?बेटी,आज मैं अपने देवदत्त की प्रतिज्ञा समक्ष हार गयी ,मेरी बहू बन जाओ। पिता जी के असमय मृत्यु के बाद पक्षाघात से बिस्तर पर पड़ी माँ के नयनों से जलधार बह निकले। पहली बार जीवन का स्पंदन हुआ।






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